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भारत पर मुस्लिम राज्य ]
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इससे यही प्रतिफलित होता है कि तामिलनाड़ प्रदेश में एक लम्बे समय तक चले सामूहिक संहार, बलात् धर्मपरिवर्तन आदि के रूप में संकटपूर्ण दौर के उपरान्त भी दक्षिण में जैनों की संख्या वहां की आबादी का एक तिहाई भाग थी ।
३. जैन एवं बौद्ध दोनों ही धर्मों में वर्ण, जाति अथवा ऊँच-नीच जैसा कोई भेदभाव सिद्धान्ततः नहीं था । मानव मात्र के लिए साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूपी चतुर्विधतीर्थ अथवा संघ के द्वार अनादि काल से ही खुले रखे गये थे । परम पवित्र जैन आगमों में इस प्रकार के अनेक उल्लेख अद्यावधि उपलब्ध हैं कि सुदीर्घ अतीत से लेकर श्रमरण भगवान् महावीर की विद्यमानता तक चाण्डाल आदि जातियों के लोगों ने श्रमरणधर्म अंगीकार कर नर, नरेन्द्र, देव, देवेन्द्रों द्वारा वन्दनीय एवं पूजनीय सर्वोच्च सम्मानार्ह पद प्राप्त किया । मथुरा के अत्यन्त महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल "कंकाली टीले" की खुदाई से प्राप्त हुए प्राचीन पुरातात्विक अवशेषों से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि गणिकाएं तक जैन धर्म की उपासिकाएँ थीं और उन्होंने कुषाण वंशीय विदेशी राजाओं के शासनकाल में मथुरा के अति प्राचीन बोद्वस्तूप में तीर्थंकरों की मूर्तियां तक स्थापित कीं । दक्षिणापथ के कर्णाटक आदि प्रान्तों में उपलब्ध अनेक शिलालेखों से भी स्पष्टतः यही तथ्य प्रकाश में आता है कि वहां प्राचीनकाल में न केवल राजा, महाराजा, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि सवरणों को ही अपितु आज के युग में निम्न माने जाने वाले प्रायः सभी वर्गों के प्रजाजनों को भी जैनधर्म की आराधना अथवा उपासना का आज के युग में सवर्ण कहे जाने वाले वर्गों के समान ही बिना किसी भेदभाव के पूर्ण अधिकार था ।
जैनधर्म की भांति बौद्ध धर्म में भी जाति-पांति, वर्ण आदि के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं था । बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भ० बुद्ध ने अपने भिक्षुत्रों एवं उपासकों को सम्बोधित करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा था :
"हे भिक्षुत्रों और उपासकों ! जिस प्रकार भिन्न-भिन्न नदियां विभिन्न स्थानों से बहती हुई समुद्र में जा मिलती हैं । जब तक समुद्र में नहीं समा जातीं तभी तक उनका गंगा, यमुना आदि नाम से पृथक् रूप में अस्तित्व रहता है । समुद्र में मिल जाने के पश्चात् उनका कोई पृथक् अस्तित्व अवशिष्ट नहीं रह जाता । ठीक उसी प्रकार तुम लोग भी भिन्न-भिन्न स्थानों, भिन्न-भिन्न कुलों, वंशों, जातियों आदि से आकर बौद्ध संघ में सम्मिलित हुए हो । समुद्र में समाई हुई नदियों के समान अब तुम्हारा जाति, वर्ण, वंश, प्रान्त आदि के रूप में कोई पृथक् अस्तित्व नहीं, तुम्हारी अब कोई पृथक् पहिचान नहीं, अब तुम सब बुद्धपुत्र हो ।”
इस प्रकार जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मों में जाति-पांति, ऊँच-नीच, वर्ण आदि का किसी प्रकार का विभेद न होने के उपरान्त भी ऐसा प्रतीत होता है कि तामिलनाड़ में “ ई० सन् ६१० से ६३० के बीच अथवा आस-पास की अवधि में
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