________________
४८
.
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- भाग ४
२. 'पेरियपुराण', 'श्रमणसंहारचरितम्' आदि शैव ग्रन्थों के उल्लेखानुसार दक्षिणापथ के राजा, मन्त्री, बड़े-बड़े राज्याधिकारी, व्यापारी, गण्य-मान्य जनाग्रणी तथा अधिकांश प्रजाजन जैन धर्म के अनुयायी थे। कारकल की पहाड़ी पर अवस्थित बाहुबली की मूर्ति पर उटैंकित शिलालेख पर अपने शोधपूर्ण लेख में लब्धप्रतिष्ठ पुरातत्त्ववेत्ता विद्वान् ए. सी. बरनेल (एम.सी. एस. एस. आर. ए. एस.) ने दक्षिणापथ में जैनों की विपुल संख्या के विषय में प्रकाश डालते हुए लिखा है :
"There is every reason to believe that the Jains were for long the most numerous and most influential sect in the Madras Presidency,"1
अर्थात्-"इस बात का विश्वास करने के सभी प्रकार के पुष्ट कारण हैं कि सम्पूर्ण मद्रास प्रदेश में पुरातन काल से ही जैन धर्मावलम्बियों का समग्र मद्रास पाहाते (प्रदेश) पर अत्यधिक प्रभावपूर्ण वर्चस्व था।"
___ तामिलनाडु प्रदेश (मद्रास प्रेसिडेन्सी) में जैन धर्म तथा जैनधर्मावलम्बियों का अस्तित्व तक मिटा देने के संकल्प के साथ शैवों द्वारा प्रारम्भ किये गये रक्तपातपूर्ण बीभत्स अभियान के सम्पन्न हो जाने के लगभग ८०० वर्ष पश्चात् लिंगायतों द्वारा आन्ध्र एवं कर्नाटक प्रदेशों में जैनों का चिह्न तक मिटा डालने के लक्ष्य से प्रारम्भ किया गया अभियान वस्तुतः ईसा की सातवीं शती के प्रथम चरण में तामिलनाड के शैवों द्वारा किये गये शैव अभियान की अपेक्षा अत्यधिक व्यापक तथा भयानक खूनी अभियान था। लिंगायतों के उस अभियान से पूर्व दक्षिण में जैनधर्मावलम्बियों की संख्या के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए अपने समय के मूर्धन्य इतिहासविद् श्री ए. एस. अल्तेकर (एम. ए. एल-एल. बी., डी लिट) ने लिंगायती साहित्य के आधार पर अपना अभिमत निम्नलिखित रूप में अभिव्यक्त किया है :
___..."किन्तु दक्षिण भारत में जैन धर्म को राजामों का व्यापक प्रभावकारी संरक्षण प्राप्त होता रहा । जैन धर्म के दक्षिणापथ के इतिहास में वह समय जैनधर्म के पल्लवन का वस्तुतः बड़ा ही उज्ज्वल समय था। उस समय जैनधर्म का दक्षिण में कोई प्रबल प्रतिपक्षी नहीं था। अतः उस कालावधि में राजा और प्रजा दोनों के ही सहयोग सहाय्य से जैनधर्म मध्याह्न के सूर्य के समान चमकता रहा । उस समय दक्षिण भारत में जैनों की संख्या वहां की सम्पूर्ण जन-संख्या का लगभग एक तिहाई भाग थी।"२
1. २.
The Indian Antiquery, Vol. II, page 353-54 History and Culture of the Indian People, Vol. IV. The age of Imperial Kannauj, page 288. published by Bhartiya Vidya Bhawan, Bombay.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org