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भारत पर मुस्लिम राज्य ]
[ ४७ मठों, वसदियों एवं धार्मिक केन्द्रों को धूलिसात् करने के साथ-साथ जैनों तथा अन्य धर्मावलम्बियों पर नाना भांति के अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिये । 'तामिलनाडु प्रदेश का प्रत्येक नागरिक एकेश्वर शिव में प्रगाढ़ आस्था रखने वाला केवल. शैव धर्म का ही अनुयायी हो, सम्पूर्ण तामिलनाडु प्रदेश में एकेश्वरवादी शैवधर्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी धर्म का अस्तित्व तक अवशिष्ट न रहे, इस प्रकार के दृढ़ संकल्प के साथ शैवों ने अपने धार्मिक अभियान को और अधिक तीव्र गति प्रदान की। मानवता को अमानवीय उत्पीड़नों से मुक्ति दिलाने के पवित्र लक्ष्य से विभेदविहीन अभिनव समाज की संरचना का जो अभियान प्रारम्भ किया गया था, वह अभियान एकेश्वर में आस्था रखने वाले एवं सिद्धान्त रूप में वर्ग-वर्ण-विहीन समाज में युगादि से ही दृढ़ विश्वास रखने वाले जैनों के लिये सम्पूर्ण तामिलनाडु प्रदेश में विनाश की विभीषकापूर्ण ताण्डव लीला प्रस्तुत करने वाला बीभत्स कराल काल तुल्य सिद्ध हुआ ।
शैवों द्वारा जैनों पर किये गये उन रोमांचक अत्याचारों की साक्षी देने वाले पेरियपुराण के उल्लेख एवं उत्तरी प्राटि जिले के तिरुवत्तूर और मदुरा के मीनाक्षी मन्दिर की-भित्तियों पर चित्रित भित्तिचित्र पाठकों तथा दर्शकों के मन एवं मस्तिष्क को.आज भी हठात् झकझोर डालते हैं।'
यहां यह विचारणीय है कि शैव अभियान के प्रमुख लक्ष्य-जाति, वर्ण, वर्ग आदि विभेदविहीन समाज की संरचना का जहां तक प्रश्न था, शैवों को जैनों एवं बौद्धों के साथ संघर्ष में उतरने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। जहां तक सिद्धान्तों का प्रश्न है शैवों को जैनों एवं बौद्धों के साथ संघर्ष में उतरने के लिये कहीं कोई अवकाश ही नहीं था। क्योंकि जैन धर्म और बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों में मूलतः इनके प्रारम्भिक काल से ही बिना किसी प्रकार के जाति-पांति अथवा ऊंचनीच के भेदभाव के, मानवमात्र को समान धार्मिक अधिकार प्रदत्त हैं। इस प्रकार की स्थिति के रहते हुए भी शैवों द्वारा जैन धर्मानुयायियों एवं बौद्धों के विरुद्ध विप्लवकारी संघर्ष छेड़े जाने और श्रमणों तथा बौद्ध भिक्षुत्रों के प्रति जनमानस को घरणा से ओतप्रोत करने के निम्नलिखित तीन ऐसे प्रबल कारण थे; जिनके परिणामस्वरूप उन्हें अपने अभिनव अभियान के हित को दृष्टिगत रखते हुए इन दोनों धर्मों एवं धर्मावलम्बियों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ना न केवल परमावश्यक ही अपितु अनिवार्य सा प्रतीत हुआ :
१. ईसा की छठी शताब्दी के अन्त अथवा सातवीं शताब्दी के प्रथम-द्वितीय दशक तक जैनों एवं बौद्धों के धर्मसंघ दक्षिण भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली धर्मसंघ गिने-माने जाते थे। उस समय तक मुख्यतः जैन धर्म दक्षिणापथ का राजमान्य एवं बहुजनसम्मत धर्म माना जाता था। १. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग ३ पृष्ठ ४७८-४८१ ।
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