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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
साथ-साथ इसके प्रचार-प्रसार में सामूहिक रूपेण अपनी पूरी शक्ति लगा कर पूर्ण मन, वचन, काय योग से प्रबल सहयोग प्रदान किया।
प्रबल जनमत के सक्रिय सबल सहयोग के परिणामस्वरूप शैव सन्त तिरु ज्ञान सम्बन्धर और जैन सन्त से शैव सन्त बने तिरु अप्पर को अपने एकेश्वरवादी विभेदविहीन शैव धर्म के प्रचार-प्रसार में, स्वल्पतर समय में ही आशातीत सफलता प्राप्त हुई और उनके इस शैव अभियान ने राज्याश्रय प्राप्त होते ही धार्मिक क्रान्ति का रूप धारण कर लिया। तिरू ज्ञानसम्बन्धर के चमत्कारों से प्रभावित हो जैन धर्म के अनुयायी एवं प्रबल पोषक मदुरापति पाण्ड्यराज सुन्दर पाण्ड्य अपर नाम कुन् पाण्ड्य-मारवर्मन अथवा कुब्ज पाण्ड्य ने जैन धर्म का परित्याग कर शैव धर्म अंगीकार कर लिया। ठीक इसी समय में तिरू अप्पर नामक एक शैव महासन्त (जो ईसा की पांचवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में धर्मसेन नामक अपने समय का एक महान् प्रभावक जैनाचार्य था और बड़े-बड़े शैव सन्तों के अथक प्रयासों से जिसने जैन धर्म का परित्याग कर शैव धर्म अंगीकार कर लिया था') की वृहस्पति तुल्य वागीशता एवं प्रेरणाप्रदायी उपदेशों से प्रभावित हो कांचिपति पल्लवराज महेन्द्रवर्मन प्रथम (ई० सन् ६००-६३०) ने भी जैन धर्म का परित्याग कर शैव धर्म अंगीकार कर लिया।
अपने समय के दो महाशक्तिशाली राजाओं (जो उस समय तामिलनाडु प्रदेश में जैनधर्म के सशक्त समर्थक एवं जनसंघ के सबल स्तम्भ माने जाते थे) द्वारा जैनधर्म के परित्याग के साथ-साथ शैवधर्म स्वीकार कर लिये जाने से शैवों के उत्साह ने अपनी पराकाष्ठा को पार कर धर्मोन्माद का रूप धारण कर लिया। मदुरा (दक्षिण मथुरा) में पाण्ड्यराज कुन्पाण्ड्य और कान्ची में पल्लवराज महेन्द्र वर्मन के पृष्ठबल से प्रोत्साहित शैवों द्वारा ई० सन् ६१० से ६३० के बीच की अवधि के किसी एक ही समय में मदुरा तथा कान्ची दोनों नगरों में अनेक सहस्र जैन श्रमणों और बहुत बड़ी संख्या में जैन धर्मावलम्बियों का, सामूहिक संहार के साथ-साथ बल पूर्वक सामूहिक धर्म परिवर्तन किया गया। जिन कट्टर जैनों अथवा सवर्णों वा एकेश्वरवादी शैव धर्म से भिन्न किसी भी अन्य धर्म के अनुयायियों ने वर्ण-वर्ग आदि के भेदविहीन शैव धर्म के सिद्धान्तों को स्वीकार करने की अनिच्छा व्यक्त की, उन्हें तत्काल सामूहिक रूप से मौत के घाट उतार दिया गया और मृत्यु के भय से भयभीत लोगों को सम्पूर्ण तामिलनाडु प्रदेश में बलात् धर्मपरिवर्तन के लिये बाध्य किया जाने लगा। राज्याश्रय प्राप्त हो जाने और प्रथम प्रयास में ही इस प्रकार की अप्रत्याशित सफलताओं के प्राप्त हो जाने के परिणामस्वरूप शैवों का धर्मोन्माद इस सीमा तक बढ़ गया कि उन्होंने तामिलनाडु प्रदेश के गांव-गांव और नगर-नगर में उस समय प्रचुर मात्रा में विद्यमान जैनों के मन्दिरों,
१. विस्तार के लिये देखिये “जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग ३, पृष्ठ ४८६-४६६ ।
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