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________________ लोकशाह सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ } [ ६६७ सव्व सव्वदरिसि तेलोक्कमहितपूजिते सदेवगरासुरस्स लोगस्स प्रच्चरिगज्जे वंदरिणज्जे पूरिज्जे, सक्कारणिज्जे सम्मारणणिज्जे, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइअं पज्जुवा सरिगज्जे ।" श्री उपासकदशांग मध्ये अध्ययन ७, ए अरिहंत विद्यमानना चैत्य ५, इत्यादिक घणे ठामइं चेइशब्दइं अरिहंत कह्या छ । जउ मानुषोत्तरपर्वतइं ह्या अरिहंत वांद्या तु इम जाणज्यो, जे सघलइ अरिहंत वांद्या । डाहु हुइ ते विचारी जोज्यो । तथा कोई इम कहसिइ - नंदीसरवरइं चेइशब्दई स्युं वां । तेहना उत्तर प्रीछउ, जउ मानुषोत्तरइं चेइशब्दइं अरिहंत वांद्या, तर नंदीसरवरप्रमुख सघलइ चेइ शब्द अरिहंत वांद्या । मानुषोत्तरइं ग्रनइ नंदीसरवरई शब्द ना फेर कांई छ नहीं । बेहू ठाम सरिखा शब्द छई । तथा रुचकद्वीप परिण शाश्वती प्रतिमा सूत्रइ किहांइ नथी कहिउं । तथा जंघाचाररगनइ प्रालावइ बीजा घरणा प्रत्युत्तर छईं, परिण जउ मानुषोत्तरइं शाश्वती प्रतिमा नथी, तउ बीजा प्रत्युत्तर नजं स्यु काम ? हु हुइ ते विचारी जोज्यो । छ । एह इग्यारमु बोल । १२. बारमु बोल : हवइ बारमु बोल लिखीइ छइ । तथा श्री भगवती सूत्र मध्ये चमरेन्द्रनई अधिकारइं एहवा शब्द छई - "गण्णत्थ अरहंते वा, अरहंत चेतिया रिण वा रणगारे भावियप्पमाणो निस्साए उड्ढं उप्पयंति ।" तिहां केतला एक इम कहई छई जे अरहंतचेइयाणि वा 'कहतां जिनप्रतिमानी निश्राई जाई ।' तेहना प्रत्युत्तर लिखीइ छई । ts प्रतिमानी निश्रा हुइ तउ चमरेन्द्र भरतखंड लगई स्या माटई प्रावइ । शाश्वती प्रतिमा तु चमरेन्द्रनई कड़ी हती । अनइ जउ तेगईं गरज सरइ तउ भरतखंड लगई सिहानई प्रवइ । तथा सौधर्मेन्द्रइं वज्र मुक्यु, तिवारई चमरेन्द्र भयभ्रान्त हुतु भरतखंड लगई सिंहानइ प्रव्यउ । जउ प्रतिमाई गरज सरइ तु तिहां शाश्वती प्रतिमा ढूंकड़ी हती, अनइ तेहनई शरण जाउत । पणि जेहनई शरणई छूटीइ तेहनई शरणईं प्राव्यउ दीसइ छइ । तथा सौधर्मेन्द्र पणि वज्र मुकी एह चितव्यु जे "चमरेन्द्रनई एतली शक्ति नथी, जे प्रापणी निश्राईं इहां लगइ आवइ । पणि अरिहंत चैत्य अणगार तेहनी निश्राईं प्रवईं । अनइ मई तु वज्र मुक्यु छइ । तर ते अरिहंत भगवंत अणगार नी आशातनाई मुझनईं महादुःख हुई ।” एतलइ जोउनड अरिहंत भगवंत अणगारनी प्रशातना कही । पणि कांईं प्रतिमानी प्राशातना न कही । एतलई सौधर्मेन्द्र अरिहंत अनइ चैत्यशब्दई भगवंत कह्या । पणि प्रतिमा कोई न कही । एतलइ अरिहंत चैत्य ए शव्द ना अर्थ इहां भगवंत कह्या दीसईं छईं । अनइ वृत्ति मांहिं परिण अरिहंत फलाव्या छई । पणि प्रतिमा नथी फलावी । डाहु हुइ ते विचारी जोज्यो । ए बारमु बोल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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