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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ६६५ सार वस्तु काढ़इ अनइ इम कहइ-“ए सार भंडार काढयु हुतु मुझनइ पच्छा पुरा हियाए सुहाए इत्यादि हुसिइ। अनइ हुँ जे चारित्र लेऊ छु ते मुझनई परलोगस्स हियाए सुहाए इत्यादि हुसिइ।" हवई जुनो नई लक्ष्मी काढयाना अनइ चारित्र लीधाना शब्द ना केतला फेर छइं? “हिआए सुहाए जाव प्राणुगामीए" ए शब्द तु बेहु अधिकारइं कह्या छइं, परिण लक्ष्मी काढी तिहां इम कह्य पच्छा पुरा अनइ चारित्र ली— तिहां इम कह्य-"परलोगस्स" तु जोउनइ जिम इहांइ एवड़ा फेर शव्दना छई, तिम सूरियाभनइं पणि आलावइ जिहां प्रतिमा पूजी तिहां "पुट्विंपच्छा", अनइ जिहां वीतराग वांद्या तिहां “पेच्चा' इम कहउं । एवड़ा शब्द ना फेर छइ ए पालावानइं मेलई सूरियाभदेवताइं प्रतिमा पूजी । अनइ प्रतिमा आगलि नमोत्थुणं कह्य ते जूइ खातइ । अनइ श्री वीतराग वांद्या ते जूइ खातइ । तथा जिम प्रतिमानइं पुव्विं पच्छा कहिउं छइ तिम दाढ़ नी पूजामइं परिण पुव्विं पच्छा कहिउं छइ । ए बेहू अधिकार एक बाजउइं । तथा केतलाएक इम कहई छई -जे सुधर्मासभाई तीर्थंकर नी दाढ़ छइ, तिहां देवता मैथुन न सेवइ । तेह भणी दाढ़ सम्यक्त्वनइ खातइ । तो जोप्रोनइसम्यक्त्वनइ खातइ हुइ तो पुव्विं पच्छा कां कहइ ? अनइ धम्मिग्रं. ववसाइयं पणि कां कहइ ? तथा श्री ठाणांग मध्ये त्रीजइ ठाणइ व्यवसाय त्रीणि कह्यां, ते लिखीइ छइ छ-"तिविहे ववसाए पण्णत्ते तं जहा धम्मिए ववसाए, अधम्मिए ववसाए, धम्मिअधम्मिए, ववसाए'"-ते धर्म व्यवसाय साधुनउ धर्माधर्म व्यवसाय श्रावकनउ, बाकी बावीस दंडक अधर्मव्यवसाय कह्या तो जुनोनइं—"देवता श्री वीतरागे अधर्मव्यवसाय कह्या, अनइ जिहां सूरियाभदेवता प्रतिमा तथा द्रह वावि इत्यादि पूजवा प्राप्यु तिहां इम कहिउ जे धम्मिग्रं ववसाइयं गिण्हिज्जा।" अनइ ठाणांग मध्ये दसमइ ठाणइ धर्म तउ दस कह्यां--"दसविहे धम्मे पन्नते, तं जहा—गामघम्मे (१), नगरपम्मे (२), रठूधम्मे (३), पासंडधम्मे (४), कुलधम्मे (५), गणधम्म (६), संघधम्मे (७), सुप्रधम्मे (८.), चारित्तधम्मे (६), अस्थिकायधम्मे (१०)। ए दस धर्म कह्यां । ते मांहिं जे "धम्मिग्रं ववसाइयं गिण्हिज्जा"---कहिउं ते तु कुलधर्म मांहि प्रावइ छइ । अनइ केतलाएक इम कहई छई, जे "धम्मिग्रं ववसाइयं" कहतां श्रुतधर्म कहीइ । तउ डाहु हुइ ते विचारी जोज्यो-जे सूरियाभई तउ प्रतिमा, द्रह, वावि, हथीयार इत्यादि घणां वानां पूज्यां छइं । अनइ धम्मिग्रं ववसाइयं तु समुच्चयपदई कहिऊं छइ । जु धम्मिग्रं ववसाइग्रं श्रुतधर्म तु द्रह, वावि, हथीयार जेतलां वानां ते सहू श्रुतधर्म थाइ अनइ तिहां तउ इम न कहिउं-जे प्रतिमा नी पूजा तथा नमोत्थुणं ते श्रुतधर्म अनइ द्रह वावि हथीयार इत्यादिक ते कुलधर्म । तिहां तु समुच्चयपदइं धम्मिग्रं ववसाइमं कह्य छइ । प्रतिमा नमोत्थुणं द्रह वावी हथीयार प्रमुख सहूनइं कहिउं छइ । डाहु हुइ ते विचारी जोज्यो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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