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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ 1 लोकशाह [ ६६१ तथा केतला एक इम कहइ छइ, सम्यग्दृष्टी टाली कोई 'नमोत्थुणं' इत्यादि न भणइ । ते श्री अनुयोगद्वार मांहि इम कह यु - 'जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छक्कायणिरणुकंपा या इव उद्दामा, गया इव निरंकुसा, घट्टा मट्टा तुप्पोट्टा, पंडुरपट्टपाउरणा, जिणारणं प्रणारणाए सच्छंद विहरिऊणं उभओकालमा वस्सगस्सउ वस्सगस्स उवट्ठति', तु जोइइ लोकोत्तर द्रव्यावश्यक ना करणहार दिन प्रति वार बि आवश्यक करई तेह मांहि "नमोत्थुगं" कहइ, अनइ ते वीतरागई समकितदृष्टी न कहिया । तउ जोउ नई, जि कोई इम कहइ छइ जो 'सम्यग्दृष्टी टाली नमोत्थुणं को न कहइ' ते वात सूत्रविरुद्ध दीसइ छइ । तथा श्री नंदिसूत्र मांहिं इम कह, युं - जे चउद पूर्व ना भणणहार नई मति समी हुइ, जाव दस पूर्व ना भणनहारन पणि मति समी हुई, अनइ नव पूर्व ना भणनहारन पणि मति समी हुइ, अनइ मिथ्या पणि हुइ ।” एतलइ णमोत्थूणं आदिइ देइनइ ग्रंथ घरगुइ भाइ, पणि मति मिथ्याइ इ, अनइ समी पण हुइ । तु इणई मेलई जोतां जे इम कहइ छइ जे सम्यग्दृष्टी टाली अनेरा 'नमोत्थुणं' न कहइ - ए बात शास्त्रस्यु विरुद्ध दीसइ छइ । तथा प्रत्यक्ष षमणा प्रमुख घणाई 'नमोत्थुणं' कहई छइं, ते कांई समकितदृष्टि जाण्या नथी जे हु हुई ते विचारी जोज्यो । तथा केतलाएक इम कहई छई जे गणधरे इ कां कह युं जे “जिणघरे” " जिणपडिमा ” तथा “धूवं दाऊण जिणवराणं ?" तेहना उत्तर प्रीछउ - जे जगमांहिं जेहना नाम जेहवां प्रवर्त्ततां हुए गणधर पणि तेहनु अधिकार आविई तेहनई तेहवइ नाम कहइ । जिम श्री ठाणांग मध्ये त्रीजइ ठाणाइ गणधरे इक कह, यु जे 'भरहे वासे तो तित्था पण्णत्ता - मागहे, वरदामे पभासे' तो जोउ तइ जिम गणधरे तीर्थ कहां, तिमइ मन कहिउं जे "तओ कुतित्था पण्णत्ता" जु गणधरे ते तीर्थ कह यां तुकाई आपण तीर्थ करी प्राराध्या नहीं । एतलइ गणधर जेहनु जेह नाम हुइ तेहनई तेहवु नाम कहइ । ते ते नाम कह या माटि इ कांइ आराध्य न थाइ । श्री वीतरागइ तु ज्ञान दर्शन चारित्र आराध्या त्रीजइ ठाणइ बोल्या “तिविहा आसाहणा पण्णत्ता जहा नाणाराहणा दंसणा राहणा चारिताराहणा" तथा गणधरे आपणे मुखई इम कह यु - पूर्णभद्र यक्षनई - " जे दिव्वे सच्चे" ए यक्ष साचउ, जु गणधरे इम कह युं - जे ए यक्ष साचरं तु कांई प्रापणई आराधवउ नहीं । तथा गधरे इम कह - जे गोशाला ना श्रावक एहवा छइं, जे 'अरिहंतदेवतागा अम्मा पिउ सस्सुसगा ।' गणधर इम कह यु जे गोशालाना श्रावकनइं गोशालो अरिहंत देव छइं परिण गरणधरे इम सिंइं न कह यु - ' जे गोशालाना श्रावकनई गोशालो कुदेव छइ ।' एतलइ इम जाणज्यो, जे लोक मांहि जे पदार्थ जेहवां प्रवर्तइ छइ, ते गरणधरपरिण तिम ज कहई | तथा द्रुपदी ना प्रलावा नी वृत्ति मांहि इम कहिउं छइ – जे “एक वाचनाइ एह छइ, जे " जिरणपड़िमारणं, अच्चणं करेति ।" एतावदेवं दृश्यते - " जिन प्रतिमा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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