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________________ ६४८ । [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ का विशुद्ध स्वरूप न केवल लोकप्रिय ही हो गया अपितु जन-जन के लिये अनुकररणीय एवं श्रद्धा का केन्द्र बिन्दु भी बन गया। ___ यह केवल कल्पना की उड़ान ही नहीं है अपितु एक अवितथ तथ्य है । इसकी साक्षी है लोंकाशाह द्वारा विक्रम सम्वत १५०८ में जन-जन के समक्ष और द्रव्य परम्पराओं के उद्भट विद्वानों एवं प्राचार्यों के समक्ष रखे गये लोकाशाह के ऐतिहासिक चौतीस बोल, जो विज्ञों के विचारार्थ यहां प्रस्तुत हैं : लोकाशाह के चौंतीस बोल ॥६०।। श्री सर्वज्ञाय नमः । जे इम कहइ छइं अम्हारइ नियुक्ति, चूरिण, भाष्य, वृत्ति, प्रकरण सर्व प्रमाण, तेहाइं एतला बोल सहूं प्रमाण करवा पडसी ते प्रीछयो- निशीथ सूत्र नी चूणि मध्ये इम छइ जे कोई एक आचार्य घणां परिवार सूं अटवी मांहीं गयु तहां घणां व्याघ्रादि देखी आचार्य इं कह्य-गच्छनइ राखवु स्वापदादि निवारवो, तिवारइ एकइं साधई कहिउं किम निवारीइ ? तिवारइं सूरि कह्य -पहिलउ अविराध्य अबइ पछइ न रहै तउ विराध्यां परिण दोष नहीं। पछइ तेराइ ३ सिंह मार्या । पछइ गुरु पइं जई नइं पूछ्यु, पछइ गुरु कहइ तु शुद्ध। एवं आयरियादि कारणेसु वावादितो सुद्धो। सुद्ध शब्द नो अर्थ ए जे—अप्रायश्चित्तीत्यर्थः ॥१॥ आगम निष्णात धर्म प्राण लोकाशाह ने नियुक्तियों, भाष्यों, एवं टीकाओं के तलस्पर्शी अवगाहन के अनन्तर निशीथ चूर्णी के जिस उल्लेख की ओर इस प्रथम बोल में संकेत किया है वह निशीथ चूरिण का मूल पाठ निम्न रूप में है : संसत्तपोग्गलादी, पिउडे पोमे तहेव चंमे य । प्रायरिते गच्छंमी, बोहियतेणे य कोंकणए ।।२८६।। गाथा के तृतीय और चतुष्चरण की व्याख्या करते हुए चूरिणकार ने लिखा है : __ एगो पायरियो बहुसिस्सपरिवारो उ संज्झकाल समये बहुसावयं अडवि पवण्णो । तंमि य गच्छे एगो दढसंघयणी कोंकरणगसाहू अत्थि । गुरुणा य भणियं– “कहं अज्जो ! जं एत्थ दुट्ठसावयं किं वि गच्छं अभिभवति तं णिवारेयव्वं, ण उवेहा कायव्वा ।" ततो तेण कोंकणगसाहूणा भणियं--- "कहं ? विराहितेहिं अविराहिंतेहिं णिवारेयव्वं ?" गुरुणा भरिणयं—“जइ सक्कइ तो अविराहिंतेहिं पच्छा विराहिंतेहिं वि ण दोसो।" ततो तेरण कोंकणगेण लवियं- ''सुवय वीसत्था, अहं भे रक्खिस्सामि ।" तो साहवो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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