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________________ सामान्य श्रृंतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ६४७ लोकाशाह नये मत के नहीं किन्तु धर्मोद्धारक क्रान्ति के प्रवर्तक महान् धर्मोद्धारक लोंकाशाह ने श्रमण भगवान् महावीर के धर्म संघ में व्याप्त विकृतियों, बाह्याडम्बरों, अनागमिक मान्यताओं एवं शिथिलाचार के विरुद्ध क्रान्ति का उद्घोष कर विक्रम सम्वत् १५०८ में सर्वज्ञप्रणीत आगमों के अनुसार जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्तों का उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया था। यह तथ्य तो सर्वमान्य है। तपागच्छ पट्टावली में इस तथ्य की निम्नलिखित वाक्य से पुष्टि की गई है : "तदानीं च लुकाख्याल्लेखकात् वि. अष्टाधिक पंचदशशत् १५०८ वर्षे जिनप्रतिमोत्थापनपरं लुकामतं प्रवृत्तम् ।"१ पट्टावली सारोद्धार में भी “तदानीं लुकाख्यात् लेखकात् सम्वत् १५०८ वर्षे श्री जिनप्रतिमोत्थापनपरं लुकामतं प्रवृत्तम् ।"२ के उल्लेख से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि विक्रम सम्वत् १५०८ में लोंकाशाह ने लुकामत का प्रचार करना प्रारम्भ किया। शताब्दियों से जैन धर्मावलम्बियों के न केवल मानस में ही अपितु रोमरोम में घर की हुई अनागमिक मान्यताओं के विरोध में आगम प्रतिपादित मूल मान्यताओं का प्रचार करने वाला एवं उपदेश देने वाला व्यक्ति कितना साहसी, कैसा विशिष्ट प्रतिभाओं का धनी और पागम मर्मज्ञ होगा इसका अनुमान साधारण से साधारण पूर्वाभिनिवेष विमुक्त तटस्थ व्यक्ति सहज ही लगा सकता है। इस अनुमान से यही निष्कर्ष निकलता है कि विक्रम सम्वत् १५०८ में जैन धर्म के आगमिक स्वरूप का उपदेश करने वाले महान् धर्मोद्धारक लोंकाशाह ने न केवल आगमों का ही अपितु अनागमिक मान्यताओं के मूल स्रोत सम्पूर्ण जैन वांग्मय का भी तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर लिया था। बिना सभी आगमों का, नियुक्तियों, भाष्यों, चूरियों, अवचूणियों एवं टीकाओं आदि का तलस्पर्शी अध्ययन किये लोकाशाह न तो विशुद्ध आगमिक धर्म का उपदेश करने का साहस कर पाते, न कोई उनकी बात सुनता और न वे द्रव्य परम्पराओं के प्रकांड पंडित सूरियों के समक्ष एक क्षरण भी टिक ही पाते । इससे यही प्रकट होता है कि लोकाशाह द्वारा विक्रम सम्वत् १५०८ में जिस धर्म क्रान्ति का सूत्रपात किया गया, वह शब्द की गति से भारत के विभिन्न सुदूरस्थ प्रदेशों में व्याप्त हो गई, लोंकाशाह के आगमपरक उपदेशों को सुनने के लिये धर्म-निष्ठ व्यक्ति उद्वेलित सागर की तरह उमड़ पड़े और स्वल्प काल में ही लोंकाशाह द्वारा शताब्दियों के अनन्तर प्रकाश में लाया हुआ जैन धर्म १. पट्टावली समुच्चय, प्रथम भाग, पृष्ठ ६७ २. - वही - पृष्ठ १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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