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________________ ६४६ ] । जैन धर्म का मौलिक इतिहास---भाग ४ उसे कोई शिक्षा दे तो इस शिक्षा को भी वह कुशिक्षा मानता है । जब तक दुष्कर्म का प्रभाव रहता है अच्छी शिक्षा भी बुरी प्रतीत होती है। जमालि, गोशालक और गोष्ठा माहिल को ही देख लिया जाय । दुष्कर्म के प्रभाव से उन्होंने भगवान् महावीर की शिक्षा को भी नहीं माना। यह हर्षकीत्ति उनका नव्य दृष्टान्त है। इन लुकामतियों की कहां तक बात कही जाय। इन्होंने तो चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु के वचनों को भी खंडित कर दिया। जो जिनेश्वर की वाणी का अक्षरशः पालन करते हैं वे प्रथम श्रेणी के धन्य प्राणी हैं। दूसरी श्रेणी के धन्य वे लोग हैं जो कारणवश वीतराग की वाणी का अक्षरशः तो पालन नहीं कर सकते किन्तु उसे अवितथ समझकर उसी के अनुसार उपदेश करते हैं । धन्य भव्यों की तीसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो जिनेश्वर की वाणी को अक्षरशः सत्य समझते हुए स्वयं उसका पालन न कर सकने के अनन्तर भी उसका पालन करने वाले महापुरुषों के प्रति सम्मान प्रकट करते हैं और पुरुषों की चौथी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो जिनेश्वर की वाणी का, जिनेश्वर के आदेश का पालन करने वाले पुरुषों को किसी प्रकार का दोष नहीं देते । अागम में इन चार प्रकार के प्राणियों को धन्य माना गया है किन्तु यह लोंकामत का उपदेश करने वाला हर्षकीति तो इन चारों में से किसी भी श्रेणी में नहीं आता। जो पानी अाम्र वृक्ष को दिया जाता है वही पानी नीम वृक्ष को भी मिलता है। किन्तु ग्राम मीठा और निम्बोली कड़वी होती है। इस दृष्टान्त को ध्यान में रखते हुए हर्षकीत्ति की भांति के लोंकामतियों की संगति त्यागो और सद्गुरुओं की सेवा करो।" इस कुलक में उल्लिखित विवरणों से निम्नलिखित तथ्य प्रकाश में आते हैं : १. विक्रम सम्वत् १५३० में लोकाशाह द्वारा प्रकाश में लाया हुअा जैन धर्म का मूल स्वरूप धुन्धुका एवं पाटन आदि क्षेत्रों में अत्यधिक लोकप्रिय हो चुका था। दूर-दूर तक प्रसृत हो गया था। २. इसमें उल्लिखित हर्षकीत्ति द्वारा किये गये लोंकामत के प्रचार के विवरण से यह प्रकट होता है कि तत्कालीन विभिन्न परम्पराओं के श्रमण भी जैन धर्म संघ में शताब्दियों से घर की हुई विकृतियों, बाह्याडम्बरों एवं अनागमिक मान्यताओं का विरोध करने और लोकाशाह द्वारा प्रकाशित सत्य मार्ग का अनुसरण करने के लिए कटिबद्ध हो गये थे। ३. लोकाशाह द्वारा प्रकाश में लाये हुए विशुद्ध प्रागमिक धर्म की अोर जनमत इतना अधिक आकर्षित हो चुका था कि द्रव्य परम्पराओं के साधुओं की बात तक सुनने के लिए कोई तैयार नहीं था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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