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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ६४६ सव्वे सुत्ता । सो एगागी जागरमाणो पासति सीहं आगच्छमाणं । तेण हडि त्ति जंपियं, रण गतो, ततो पच्छा उद्धाइऊरण सणियं लगुडेण पाहतो, गो परितावियो। पुणो आगतं पेच्छति, तेण चितियं ण सुट्ठ परिताविप्रो, तेण पुणो आगो, पुरणो गाढयरं आहतो। पुणो वि ततियवारा एवं चेव, रणवरं सव्वायामेण पाहतो, गता राती। खेमेण पच्चूसे गच्छंता पेच्छंति सीहं अणुपंथे मयं, पुणो अदूरे पेच्छंति बितियं, पुणो अदूरते ततियं । जो सो दूरे सो पढमं सरिणयं आहो, जोवि मज्झे सो बितिप्रो, जो णियडे सो चरिमो गाडं पाहतो मतो । तेण कोंकणएण आलोइयमारियाणं, सुद्धो । एवं पायरियादीकारणेसु वावादितो सुद्धो। गता पाणातिवायस्स दप्पिया कप्पिया पडिसेवणा । गतो पाणातिवातो ॥२८६।। अर्थात् एक समय एक आचार्य अपने विशाल शिष्य परिवार के साथ धर्म प्रचारार्थ विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते हुए एक ऐसे विकट वन में पहुंचे, जहां सिंह आदि अनेक प्रकार के हिंस्र वन्य पशुओं का बाहुल्य था। (वसति दूर थी और सूर्यास्त होने ही वाला था।).अतः वे अपने शिष्य समूह के साथ वन में ही एक वृक्ष के नीचे रात्रि वास के लिये रुक गये । उनके शिष्यों में कोंकण प्रदेश का एक सुदृढ़ संहनन का धनी सशक्त साधु था। प्राचार्य ने उस बलिष्ठ शिष्य से कहा- "वत्स ! रात्रि में यदि कोई हिंस्र जन्तु हम लोगों को कष्ट पहुंचाने के लिये आ जाय तो उससे हम सबकी तुम रक्षा करना।" शिष्य ने गुरु के आदेश को शिरोधार्य करते हुए सविनय प्रश्न किया :- "भगवन् ! आने वाले वन्य हिंसक जन्तु को बिना किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाये ही भगाने का प्रयास करू अथवा कष्ट पहुंचा कर भी?" . प्राचार्य ने उसे समझाते हुए आदेश दिया :-"प्रयास तो यथासम्भव उसे बिना किसी प्रकार की विराधना पहुंचाये ही भगाने का करना । इस पर भी अगर वह नहीं जाय तो उसकी विराधना करने में भी कोई दोष नहीं है।" इस पर उस कोंकण प्रदेशीय साधु ने कहा :--"भगवन् । आप सब आश्वस्त होकर सोइये। मैं आप सबकी रक्षा करूंगा।" रात्रि में सब साधु सो गये और वह जागता रहा। कुछ ही समय पश्चात् उसने देखा कि एक सिंह सोये हुए साधुओं की ओर आगे बढ़ रहा है। उस साधु ने कर्कश स्वर में धकालते हुए उस सिंह को भगाने का प्रयास किया। किन्तु वह सिंह भागा नहीं। इस पर वह साधु हाथ में एक डण्डा लिए सिंह की अोर झपटा और उस पर अपनी थोड़ी सी शक्ति का प्रयोग कर लगुड प्रहार किया। लगुड प्रहार से १. सभाष्य चूणिक निशीथ सूत्र, प्रथम भाग, गाथा २८६, पृष्ठ १००-१०१ -पागम प्रतिष्ठान, सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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