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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
द्रव्य परम्पराओं के अनेक साधु भी लोकाशाह के आगमिक उपदेशों से, लोंकाशाह के अथाह प्रागमिक ज्ञान तथा आगमों के अवगाहन के अनन्तर उनके द्वारा किये गये ५८ बोलों, ३४ बोलों, १३ प्रश्नों एवं परम्परा विषयक सारगर्भित प्रश्नों से प्रभावित हो लोकाशाह के अनुयायी बन गये और लोंकाशाह द्वारा सूत्रित धर्मक्रान्ति का खुलकर स्थान-स्थान पर डंके की चोट से प्रचार-प्रसार करने तथा लोगों को अधिकाधिक संख्या में लोकाशाह का अनुयायी बनाने लगे। लोंकाशाह द्वारा प्रारम्भ की गई धर्मक्रान्ति पर पूर्ण प्रकाश डालने वाला अधिकांश साहित्य यद्यपि निहितस्वार्थ वाली द्रव्य-परम्पराओं के अनुयायियों द्वारा नष्ट कर दिया गया तथापि लोकाशाह के विरोधीद्वारा वि० सं० १५३० में निर्मित एक ऐतिहासिक कृति आज भी उपलब्ध है। लोकाशाह द्वारा जिस अभिनव धर्मक्रान्ति का वि० सं० १५०८ में सूत्रपात किया गया वह विक्रम संवत् १५३० से पूर्व ही सफल हो चुकी थी और भारतवर्ष के एक सुविशाल भाग में लोकाशाह के अनुयायियों की संख्या उल्लेखनीय रूप में अभिवृद्ध हो चुकी थी। इन सब तथ्यों पर प्रकाश डालने वाली वह वि० सं० १५३० को ऐतिहासिक कृति "लंकामत प्रतिबोध कलक" है।
तदनन्तर लोकाशाह के ३४ बोल, लोंकाशाह के ५८ बोल और लोंकाशाह द्वारा शिथिलाचारियों अथवा द्रव्यपरम्पराओं के कर्णधारों से पूछे गये १३ प्रश्नों को भी यहां यथा स्थान यथावत् रूपेण उद्ध त किया जा रहा है।
महान् धर्मोद्धारक लोंकाशाह ने आगमों के अनुसार सर्वज्ञप्रणीत जैन धर्म के वास्तविक स्वरूप का उपदेश देकर जिनमती के नाम से जिस परम्परा का प्रचारप्रसार किया था वह विक्रम सम्वत् १५३० से पूर्व ही दूर-दूर के प्रदेशों में बहुजन सम्मत एवं लोकप्रिय हो गई थी। इस बात का प्रमाण भी विक्रम सम्वत् १५३० की "लुका मत प्रतिबोध कुलक' नाम की इस प्रति से मिलता है ।
'लुकामत प्रतिबोध कुलक' सम्वत् १५३० विक्रमीय की रचना हैं, जिसकी हस्तलिखित प्रतिलिपि लालभाई दलपतभाई इण्डियोलोजिकल इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद के पास प्रति संख्या ५८३७ पर विद्यमान है। इसे यहां यथावत् प्रस्तुत किया जा रहा है :
अथ लुकामत प्रतिबोध कुलक "||८०।। ओं नमः सिद्धं ॥ .
गोयम गणहर पहिलु नमी, राग रोस दोइ हरिइं दमी। कुवासना निवारण हेतु, केता केता कहूं संकेत ॥१॥ अनन्त जीव जिन भवन करावि, अनन्त जीव जिन बिंब भरावि । अनन्त जीव जिनवर पूजे वि, अनन्त जीव जिन जात्र करे वि ॥२॥
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