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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोकाशाह
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आदि के माध्यम से आगमों के अनेकानेक उद्धरणों-प्रमारणों को प्रस्तुत कर जन-जन के समक्ष एतद्विषयक वास्तविकता को प्रकट करते हुए कहा--"वस्तुस्थिति यह है कि आगमों में इस प्रकार का कहीं कोई किंचित्मात्र भी उल्लेख नहीं है। नितान्त अध्यात्मवादी जैनधर्म में बाह्याडम्बरपूर्ण भौतिक विधिविधानों, चैत्य निर्माण, प्रतिमापूजा, तीर्थयात्रा आदि का समावेश वीर निर्वाण के अनन्तर अनेक शताब्दियों पश्चात् नियत निवासी-चैत्यवासी मठाधीशों द्वारा किया गया है। अपनी कपोल कल्पना के आधार पर जैन धर्मसंघ में धर्म के नाम पर प्रविष्ट किये गये आडम्बरपूर्ण भौतिक विधि-विधानों को परम्परागत सिद्ध करने के उद्देश्य से चैत्यवासियों द्वारा निगमोपनिषदों की रचनाएं की गईं। उन निगमोपनिषदों की गहरी छाप नियुक्तियों, वृत्तियों, चूणियों एवं भाष्यों पर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। इसी कारण किसी भी सच्चे जैन के लिये निगमोपनिषदों की भांति नियुक्तियां, वृत्तियां, चूणियां और भाष्य अक्षरश: मान्य नहीं हैं । जैन मात्र के लिये जिनोपदिष्ट केवल अागम ही मान्य हैं, न कि सम्पूर्ण पंचांगी।
लोकाशाह के अथाह प्रागमज्ञान ने एवं प्रागमों के आधार पर दिये गये उनके उपदेशों ने लोगों को प्रभावित किया और लाखों की संख्या में जैन धर्मावलम्बी प्रबुद्ध हो अपने शिथिलाचारी कुलगुरुओं, प्रागमविरुद्ध आचरण करने वाले परिग्रही प्राचार्यों एवं मठाधीशों से अपना दामन छुड़ा लोकाशाह द्वारा प्रदर्शित विशुद्ध आगमिक पथ के पथिक बन गये । सम्पूर्ण गुजरात, मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़ और उत्तरप्रदेश में आगरा तक के नगरों एवं ग्रामों के जैन धर्मावलम्बी सत्पथप्रदर्शक धर्मप्राण लोकाशाह को मसीहा तुल्य अपना सच्चा हितैषी मानते हुए उनके द्वारा प्रदर्शित .
आगमिक मूल जैन धर्म के अनुयायी बन गये। अर्थलोलुप, परिग्रही यतीवर्ग और शिथिलाचार में प्राकण्ठ निमग्न साधु नामधारी वर्ग को लोकाशाह द्वारा प्रारम्भ की गई धर्मक्रान्ति से सभी भांति की अपूरणीय क्षति हुई। उनकी पूजा, प्रतिष्ठा और आय बड़ी तीव्र गति से उत्तरोत्तर घटते ही गये । इस प्रकार का वर्ग लोकाशाह का भयंकर शत्रु बन गया। इस निहितस्वार्थ वाले शिथिलाचारी वर्ग ने अपनी एड़ी से चोटी तक की शक्ति लगाकर लोंकाशाह के विरुद्ध अनेक प्रकार के षड्यन्त्र किये, लोकाशाह की अोर उमड़े जन-मानस के प्रवाह को उनके विरुद्ध प्रवाहित करने के कुत्सित-दूषित उद्देश्य से उनकी विशुद्ध आगमिक मान्यताओं के सम्बन्ध में अपनी कपोलकल्पना का आश्रय ले अनेक प्रकार की लावरिणयां, छन्द आदि बना कर अन्धाधुन्ध बेसिरपंर का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया। किन्तु विरोधियों के इस प्रकार के मिथ्या अभियान के उपरान्त भी लोंकाशाह द्वारा पुनः प्रकाश में लाये गये धर्म के विशुद्ध रूप स्वरूप को अंगीकार करने वालों की संख्या उत्तरोत्तर अभिवृद्ध होती ही गई । विक्रम संवत् १५३० से पर्याप्त समय पूर्व ही गुजरात से लेकर आगरा तक का क्षेत्र लोकाशाह के प्रभाव में आ चुका था और वहां लोंकाशाह के अनुयायी बहुसंख्यक की कोटि में आ चुके थे। केवल यही नहीं, शिथिलाचारग्रस्त
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