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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ क्षेत्रों में शाश्वत रूप से विद्यमान रहने के कारण अनादि अपर्यवसित माना गया है।"
लोकाशाह ने जैनधर्मावलम्बियों के समक्ष इस तथ्य को रखा कि आगमों में इस प्रकार अनादि एवं अनन्त मानी गयी द्वादशांगी में जिनमन्दिर के निर्माण, जिनेश्वरों की मूर्ति की प्रतिष्ठा-अर्चा-पूजा, तीर्थयात्रा आदि का कहीं नाम-मात्र के लिये भी उल्लेख नहीं है । अतीत की अनन्त चौवीसियों एवं प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल की चौवीसी के किसी भी तीर्थंकर प्रभु ने अपने प्रवचनों में कभी इस प्रकार का उपदेश नहीं दिया कि जिनमन्दिर निर्माण, जिनप्रतिमापूजा, जिनप्रतिमाप्रतिष्ठा अथवा जिनप्रतिमा के वन्दन से प्राणी को मोक्ष की प्राप्ति होती है। वर्तमान में उपलब्ध एकादशांगी में एक भी इस प्रकार का उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता, जिसमें गणधर, श्रमण अथवा श्रमणीवर्ग के लिये जिनप्रतिमा के वन्दन का, आनन्द आदि किसी भी श्रावकोत्तम एवं श्रावक-श्राविका आदि गृहस्थ वर्ग के लिये जिनमन्दिर निर्माण, जिनप्रतिमा-प्रतिष्ठा, जिनप्रतिमापूजा का विधान अथवा उपदेश किया गया हो, किसी भी साधक वा श्रावकोत्तम ने चैत्य-निर्माण, प्रतिमानिर्माण, प्रतिमा पूजा आदि में से किसी एक भी कार्य का निष्पादन किया हो।" श्रीमद्भगवद्गीता में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है –
पत्रं पुष्पं फलं तोयं, यो मे भक्त या प्रयच्छति । तदहं भक्त युपह तमश्नामि प्रयतात्मनः ।।२६ अ०६।।
यदि जैन धर्म में जल, फल, पत्र पुष्पादि से प्रतिमा के पूजन, प्रतिमा की प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, तीर्थवन्दन, चैत्य निर्माण आदि के लिये मुक्ति के साधन के रूप में स्थान होता तो कहीं न कहीं प्रभु महावीर अपने प्रवचनों में तथा गणधर जगद्गुरु श्रमण भ० महावीर के प्रवचनों के आधार पर निर्मित द्वादशांगी के किसी भी अंगशास्त्र में निर्देश अथवा उल्लेख अवश्यमेव करते । गणिपिटक में इस प्रकार के उल्लेख के अभाव से यही सिद्ध होता है कि अनादि अनन्त-शाश्वत गणिपिटक में, जिनेश्वर द्वारा प्रतिष्ठापित धर्मतीर्थ के विधि-विधानों में द्रव्यपूजा, द्रव्यार्चना, मन्दिर-मूर्ति निर्माण आदि के लिये कोई लवलेश मात्र भी स्थान नहीं है।"
___"त्रिकालवर्ती भावों को हस्तामलकवत् युगपद् जानने देखने वाले जगत्त्राता जिनेश्वरों से यह आत्यन्तिक महत्व का तथ्य छुपा रह गया हो कि जिनमन्दिरों के निर्माण, प्रतिमापूजा, जिनप्रतिमा-वन्दन आदि के माध्यम से भी प्राणी सब दुःखों का अन्त कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है और इस तथ्य को पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों ने विलुप्त चतुर्दश पूर्वो में से खोज कर चरिणयों, नियुक्तियों, भाष्यों, वृत्तियों अथवा प्रतिष्ठाविधियों में प्रकट किया हो, इस प्रकार की कल्पना तो नितान्त मिथ्याभिनिवेशाभिभूत प्रवचनोड्डाहक ही कर सकता है।" लोकाशाह ने अपने उपदेशों, बोलों, प्रश्नों
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