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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ६३६ के प्रकट होने के अनन्तर भवताप से संत्रस्त-संतप्त संसारी प्राणियों की दारुण दुःखपूर्ण दयनीय दशा पर द्रवित हो प्रत्येक तीर्थंकर ने प्राणिमात्र के हित के लिये दया कर प्रवचन फरमाये । उन प्रवचनों में प्रत्येक तीर्थंकर ने जन्म, जरा, प्राधि, व्याधि आदि दुःखों से सदा-सर्वदा के लिये मुक्ति प्राप्त करने के सभी उपायों पर प्रकाश डाल कर संसारी प्राणियों को मुक्ति का प्रशस्त पथ प्रदर्शित किया। समयसमय पर हुए प्रत्येक तीर्थंकर के गणधरों ने अपने तीर्थेश्वर के उन प्रवचनों के आधार पर द्वादशांगी अपर नाम गणिपिटक की रचना की। भवपाश को काट कर शुद्ध-बुद्ध-मुक्त होने के जितने भी उपाय, साधन, भाव अथवा कार्य हो सकते हैं, उन सब पर प्रत्येक सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकर ने अपने-अपने धर्मतीर्थ की स्थापना के समय पूर्ण प्रकाश डाला और उनके गणधरों ने उन सब भावों, उपायों, साधनों अथवा कार्यों को विशद रूप से द्वादशांगी में दृव्ध कर सहस्रों सहस्र भावी पीढ़ियों के लिये मुक्ति के प्रशस्त पथ को प्रकाशमान रखने का अमर कार्य सम्पन्न किया । किस-किस प्रकार की साधना द्वारा, किन-किन उपायों एवं कार्यों अथवा साधनों द्वारा भवभ्रमण से, भवताप से छुटकारा, संसार के सभी प्रकार के दुःखों का मूलतः अन्त कर अनन्त-अक्षय-प्रव्याबाध-शाश्वत शिवसुख प्राप्त किया जा सकता है, उन सब उपायों को द्वादशांगी में समाविष्ट किया गया है, उन उपायों में से किसी एक भी उपाय को द्वादशांगी में छोड़ा नहीं गया है।" "अनादि अतीत के तीर्थंकरों की ही भांति श्रमण भगवान् महावीर ने भी केवल्योपलब्धि के अनन्तर"-"सव्व जग-जीव रक्खरण-दयट्ठयाए भगवया पावयणं सुकहियं" द्वादशांगी के दशम अंग प्रश्नव्याकरणसूत्र (द्वितीय भाग, प्रथम संवर द्वार) के इस पागम वचन के अनुसार भवतापसंतप्त संसारी प्राणियों पर दया कर उनकी रक्षा के लिये, अथाह दुःखसागर संसार से उनका उद्धार करने के लिये धर्मतीर्थ की स्थापना करते हुए प्रवचन फरमाये (कहे), जिनमें मुक्ति प्राप्ति के सभी उपायों, कार्यों, भावों अथवा साधनों पर प्रभु ने पूर्ण रूप से प्रकाश डाला। प्रभु महावीर के उन प्रवचनों के आधार पर गौतम आदि ग्यारह गणधरों ने “गरिणपिटक के नाम से अभिहित की जाने वाली द्वादशांगी को दृब्ध किया ।" "सभी तीर्थंकरों के प्रवचनों में जीवादि मूल भावों की समानता एवं एकरूपता रहती है, इसी कारण-इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं न कयाई नासी, न कयाई न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ, भुवि च भवई य भविस्सइ य, धुवे, निग्रए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए निच्चे"-द्वादशांगी के चतुर्थ अंग समवायांग (सूत्र १८५) के इस सूत्र के अनुसार द्वादशांगी को अनाद्यनन्त-शाश्वत माना गया है। "इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं वुच्छित्तिनयट्ठाए साइयं सपज्जवसियं, अबुच्छित्तिनयट्ठाए अरणाइयं अपज्जवसियं"-नन्दीसूत्र (सूत्र ४२) के इस उल्लेखानुसार पांच भरत तथा पांच एरवत इन दश क्षेत्रों में समय-समय पर अंगशास्त्रों के विच्छेद और तीर्थकरकाल में इनकी रचना के कारण सादि सपर्यवसित तथा पांच महाविदेह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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