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________________ ६३८ ] [ जंन धर्म का मोलिक इतिहास - भाग ४ आगम साहित्य के ग्रवगाहनानन्तर निष्कर्ष ग्रथवा निचोड़ के रूप में निर्मित और जन-जन के समक्ष प्रस्तुत किये गये सारगर्भित "बोलों" में ऐसा सद्यः प्रभावकारी जादू था कि मुमुक्षुजन उद्वेलित सागर की भांति लोकाशाह के प्रागमिक उपदेशों को सुनने के लिये चारों ओर से उमड़ने और जैनधर्म के सर्वज्ञप्ररणीत प्रागमिक विशुद्ध स्वरूप के प्रगाढ़ निष्ठावान् अनुयायी बनकर लोकाशाह द्वारा सूत्रित समग्र धर्मक्रान्तिको सशक्त बनाने में सक्रिय सहयोग देने लगे । लोकाशाह ने शिथिलाचार का और धर्म के नाम पर शिथिलाचारियों द्वारा जैन संघ में प्रचलित किये गये बाह्याडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों एवं भौतिक विधि-विधानों का स्पष्ट शब्दों में डंके की चोट डट कर विरोध करते हुए धर्म के विशुद्ध प्रागमिक स्वरूप को सुनने-समझने के लिये प्रतिदिन उपस्थित होने वाले जनसमूह को सार रूप में समझाना प्रारम्भ किया कि जिनेश्वर प्रभु द्वारा आगमों में प्रदर्शित मुक्तिप्रदायी धर्मपथ पर चलने वाला मुमुक्षु ही वस्तुतः सच्चा जैन है । जिनेश्वर भ० महावीर के उपदेशों के आधार पर गणधरों द्वारा दृब्ध अथवा निर्मित श्रागम ही वस्तुतः प्रत्येक जैन के लिये सर्वोपरि मान्य एवं परम प्रामाणिक है । जिनवाणी में, सर्वज्ञप्रणीत ग्रागमों में जिनमन्दिर निर्मारण, प्रतिभा प्रतिष्ठा, जिनेश्वरों की प्रतिमात्रों में प्राणप्रतिष्ठा करने की विधि, जिनप्रतिमाओं में प्राणप्रतिष्ठा का विधान, मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा र पनी-अपनी बाड़ेबन्दी के उद्देश्य से स्वधर्मीवात्सल्य ( सामीवच्छल ) के नाम पर, प्रतिष्ठा आदि महोत्सवों के प्रसंग में एकत्रित लोगों को दीनारें आदि बहुमूल्य वस्तुएं प्रीतिदान के रूप में देने का न तो कहीं कोई विधान ही है और न नाममात्र के लिये भी उल्लेख तक ही । ग्रागमों के मूल उद्धरण जिज्ञासु श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत करते हुए लोंकाशाह ने उन्हें बताया कि तीर्थप्रवर्तनकाल में ग्रायविर्त के किसी भी नगर, ग्राम अथवा स्थान में कहीं भी जिनमन्दिरों का, जिनचैत्यों एवं जिनप्रतिमाओं का अस्तित्व तक नहीं था । यदि भ० महावीर के समय में जिनेश्वरों के चैत्य - जिनमन्दिर होते तो प्रभु महावीर यक्षों के चैत्यों-यक्षायतनों की ही भांति अथवा यक्षायतनों के स्थान पर कभी न कभी किसी न किसी जिनमन्दिर में भी ठहरते और साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूपी चतुविध संघ को प्रतिमावन्दन, गृहस्थ वर्ग को चैत्य - जिनमन्दिर- जिनप्रासाद, उनमें प्रतिमात्रों की प्रतिस्थापना, निरंजन - निराकार, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त जिनेश्वरों की मूर्तियों में अक्षय-अन्याबाधअव्यय - अनन्त शाश्वत सुखधाम शिवधाम में विराजमान जिनेश्वरों के प्रारणों की प्रतिष्ठा करने के मन्त्र-तन्त्र, विधि-विधान 'जिनप्रतिमा जिनसारखी' बनाने की विधि एवं उनकी इस प्रकार प्राणप्रतिष्ठित प्रतिमाद्यों की पत्र, पुष्प, फल, तोय, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से द्रव्यार्चन, द्रव्यपूजा आदि का स्पष्ट शब्दों में प्रभु महावीर ग्रवश्यमेव उपदेश देते । इस सम्बन्ध में प्रागमिक शाश्वत सत्य पर प्रकाश डालते हुए धर्मोद्धारक लोकाशाह ने अपने उपदेशों में जन-जन के समक्ष कहा - "केवलज्ञान केवलदर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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