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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोकशाह
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पर गणधरों द्वारा ग्रथित आगमों के निचोड़ - निष्कर्ष रूप में स्वयं द्वारा उस समय की लोकभाषा में लिखे गये बोलों, प्रश्नों आदि के माध्यम से जन-जन के मन, मस्तिष्क एवं हृदय में इस प्रकार की अटूट ग्रास्था उत्पन्न कर दी कि अहिंसामूलक, दयाप्रधान जैनधर्म में छोटी-बड़ी किसी भी प्रकार की हिंसा के लिये कोई स्थान नहीं है, प्रणुमात्र भी अवकाश नहीं है, अध्यात्मपरक जैनधर्म में द्रव्यार्चन - द्रव्यपूजा प्रादि के रूप में मूर्तिपूजा एवं बाह्याडम्बर के लिए कहीं कोई किंचित्मात्र भी स्थान नहीं है । लोकाशाह ने
"घम्मो मंगलमुट्ठि, अहिंसा संजमो तवो ।" के अनादि शाश्वत प्रागमिक उद्घोष के साथ सद्धर्म का दिव्यघोष गुंजरित कर आर्यधरा के इस छोर से उस छोर तक जन-जन के मानस में धर्म - क्रान्ति की कभी न टूटने वाली अक्षय अमर लहर तरंगित कर दी ।
शाह की लेखनी और वाणी के माध्यम से पंच महाव्रतधारी श्रमणों के श्रमणाचार के विशुद्ध मूल शास्त्रीय स्वरूप को, विश्वबन्धुत्व का पाठ पढ़ाने वाले विश्वधर्म जैन धर्म के सर्वज्ञप्रदर्शित विशुद्ध प्रागमिक स्वरूप को सुन कर तो लोग तत्कालीन श्रमरण-श्रमणी वर्ग में व्याप्त परिग्रह, आरम्भ-समारम्भप्रधान शिथिलाचार के विरुद्ध खुला विद्रोह करने के लिये कटिबद्ध हो गये । परिग्रह के पंक में प्राकण्ठ निमग्न साधु नामधारी यतिवर्ग के खेमे में लोंकाशाह के शास्त्रसम्मत शंखनाद से भयंकर भूकम्प सा आ गया | नामधारी श्रमणों के अनेकानेक विभिन्न गच्छों के प्राचार्यो, मठाधीशों एवं श्रीपूज्यों को बहीवट ( उपासक गृहस्थ वर्ग के नामों की सूचियों वाली बहियों) से स्वर्ण, रजत, मोती, स्वर्ण तथा रजत से निर्मित पालकियों, छड़ी, छत्र, चामरों की भेंट प्रादि के रूप में जो विपुल द्रव्य की बारहों मास अनवरत प्राय होती थी, उस आय के स्रोत अवरुद्ध होने लगे, शनैः शनैः बन्द होने लगे । अपनी अजस्र प्राय एवं सुख-सुविधाओं में इस प्रकार की अप्रत्याशित क्षति से वे लोग तिलमिला उठे । वे सब मिल कर एकजुट हो शाम दाम दण्ड भेद आदि की यथेच्छ नीतियां अपनाकर बड़ी ही तत्परता से लोंकाशाह का विरोध करने लगे । वे ग्रहर्निश लोकाशाह के विरुद्ध छल-प्रपंचपूर्ण षड्यन्त्रों की रचना में निरत रहने लगे ।
शिथिलाचारग्रस्त द्रव्य परम्पराओं के प्राचार्यों, साधु-साध्वियों एवं श्रावकश्राविकाओं द्वारा किये गये घोर विरोध, उपसर्गों एवं विघ्न-बाधाओं से लोंकाशाह किंचितमात्र भी विचलित नहीं हुए । सर्वांगपूर्ण समग्र क्रान्ति के कण्टकाकीर्ण प्रशस्त पथ पर उनके चरण ग्रागमिक उद्धरणों के उद्घोषों के साथ उत्तरोत्तर शतशतगुणित वेग से आगे की ओर ही बढ़ते चले गये । एकमात्र प्रागमों पर आधारित उनके उपदेशों में, विरोधियों से, प्रभु वीर द्वारा प्रदर्शित प्रशस्त पथ से भटके लोगों से, शिथिलाचार में निमग्न त्यागी वर्ग से उनके द्वारा पूछे गये प्रश्नों में एवं सम्पूर्ण
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