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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह
[ ६४३ अनन्त जीव पहुंता निरवारिण, साहमी वच्छल तणइ प्रमाणि । सामायिक प्रमुखि इं इम सही, एय बात सिरि आगमि कही ।।३।। इम जाणि सुश्रावक संत, यथा शक्ति केता पुण्यवन्त । पुण्यकाज ए सवि पाचरइ, लाघउ जनम ते सफलु करई ।।४।। हरष कीरति पणि जि पण्यास, तेह नइ फडीउ बडु वरांस । धंधूंकीया कहाविइं मूलि, धंधूंकू धुरि कीधु धुलि ॥५॥ संवत् पनरह तीस वासि, तिहां ठाई तेणई चुमासि । त्रिणि चारि तिहां लागट रहइ, धर्म विचारतु इच्छां कहइ ।।६।। गुरू नु मानइ न वि प्रादेस, वलावतां मनि पारगइ रेस । केता करइं तेहनु पखउं, तिगई हऊउं अति रखरखु॥७॥ गुरु सरिसी तिणइं मंडी वेढि, गच्छ मांहि परिण को नहीं मेढि । तिणि ते हऊउ अति उदंप, न वि मानइ ते केहनी चंप ।।८।। जिण पूजा जिरणहर जिण बिंब, ऊ थापइ नइ करई विडंब । न वि मानइ तीरथ नी जात्र, नवि मानइ तीरथ पात्र ।।६।। साहमी वच्छल नहीं न वि दान, रात्री भोजन रात्री ध्यान । सामाइक नु नहीं उच्चार, ए हवा मांडिया तेरिण विचार ॥१०॥ लुका मानी थापइ रीति, ते नवि बइसइ डाहां वीति । घरणे जरणे ते धंधो ली उ, तिहां हुं तु बाहिरि घोलीउ ॥११॥ ऊदाली लीधु परिवार, सघलु साधु करइ इकसार । मन भिंतरि आणइ विषवाद, तु ऊत रीउ तेहनु नाद ।।१२॥ पाटरिण पुहंतु माया करइ, माधव मुख्य अनइ अनुसरइ । जिन पूजा नइ मानइ दान, परिण पामे व अन्नह पान ।।१३॥ वांदिउ धर्मलाभ नवि कहइ, पच्चक्खारण तु न वि सद्दहइ । ए नवि मानइ भावह 'यती, दीस इ पूरू लुकामती ।।१४।। जां लग दुप्पसह पायरी, तां लगइ होसिइ दीक्षा खरी । तो लगइ पंच विधू आचार, तां लगइ चउविह संघ विचार ॥१५।। जिनवाणी ए मनि मं नवि धरइ, नव नव पाषंड मुखि उचरइ । तेह नइ लागुएहवु वेध, दीक्षा देतां करइ निषेध ।।१६।। केता श्रावक एहवा जांण, तो ही तेह नु करइ बखाण । चारित्री नी निंदा करइ, तीरणइं पापिइं पोतु भरइ ॥१७॥ भाग्य योगि लाभइ जिति धर्म, तेह तणू नवि जाणइ मर्म । तरतम योगि अछइ यतिवारा, के के भंभल के के खरा ॥१८॥ यथा योगि जांणी ते नमउ, भूल्या भूतलि कां तम्हि भमु । हित बुद्धिइं ए दीजइ सीख, ते हू मानइ चित्ति कुसीष ॥१६।।
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