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________________ ६३० ] । जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ टीले की खुदाई में उपलब्ध श्वेताम्बर परम्परा के विभिन्न गणों एवं गच्छों के शिलालेखों तथा दक्षिणापथ में उपलब्ध दिगम्बर श्वेताम्बर यापनीय और कूर्चक संघों के गणों एवं गच्छों से सम्बन्धित शिलालेखों में जिन गणनातीत संघों, गणों एवं गच्छों आदि के उल्लेख उपलब्ध होते हैं उन सबको उपर्यु ल्लिखित १६५ (एक सौ पैंसठ) गणों-गच्छों की संख्या में सम्मिलित किये जाने पर तो एक बृहदाकार सूची तैयार की जा सकती है। शिलालेखों में जिन गणों, गच्छों, मतों आदि का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता तथा जो गण, गच्छ, संघ, मत, आम्नाय आदि इस धरा से तिरोहित हो चुके हैं उनके विषय में गहन खोज के साथ गणों, गच्छों आदि की संख्या को यदि उस बृहदाकार सूची में सम्मिलित किया जाना सम्भव हो सके तो वह गरणों, गच्छों, मतों आदि को सूची कितनी बृहदाकार होगी, इसका आज कोई अनुमान तक नहीं लगा सकता। इन सब पुरातात्विक उपलब्ध सामग्रियों से एक बड़ा आश्चर्यकारी तथ्य यह प्रकाश में आता है कि वीर निर्वाण की एक सहस्राब्दि के अनन्तर श्रमण भगवान् महावीर का धर्मसंघ सैकड़ों गणों, गच्छों, मतों, संघों और विभिन्न प्रकार के भेद-प्रभेदों में विभक्त होकर परस्पर एक-दूसरे की आलोचना में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझने लग गया था। जहां तक विशुद्ध श्रमणाचार का प्रश्न है, उसकी दशा तो प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों के पर्यवेक्षण से और भी दयनीय दृष्टिगोचर होती है। इस सम्बन्ध में हम अपनी ओर से कुछ नहीं कहकर खरतरगच्छीय आचार्य जिनवल्लभसूरि द्वारा विरचित संघपट्टक की प्रस्तावना के शब्दों को ही यहां प्रस्तुत कर देना पर्याप्त समझते हैं। प्रस्तावनाकार ने लिखा है-.......................पर चैत्यवास शुरु थतां तेम ने स्वगच्छ ना बखारण अने परगच्छ नी हीलना करवा मांडी। एटले परस्परविरोधी गच्छो ऊभा थया ।" ___"गच्छ शब्द नो मूल अर्थ ए छे के गच्छ अथवा गण-एटले साधुओं नु टोलुमाटे गच्छ शब्द कांई खराब नथी, पण गच्छ माटे अहंकार ममत्व के कदाग्रह करवो तेज खराब छ । छतां चैत्यवास मां तेवो कदाग्रह वधवा मांड्यो। प्रा ऊपर थी तेत्रो मां कुसम्प बध्यो, ऐक्य त्रुट्यु। हवे. एक गच्छ मां थी चोरासी गच्छ थई पड़या। तेश्रो एकमेक ने तोडवा मांड्या अने आ रीते समाधिमय धर्म ना स्थाने कलह कंकासमय अधर्म ना बीज रोपायां। पांचवां पारा रूप अवसर्पिणी काल एटले पडतो काल तो हमेशा आव्या करे पण अगाऊ कांई आ जैनधर्म मां आवी धांधल ऊभी थई नथी पण हमणां नो पडतो काल साधारण रीते पडता काल ना करतां कईंक जुदी तरह नो होवा थी ते हुंड एटले अतिशय मँडो होवाथी तेने हुंडाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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