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________________ ६२४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ बरस सोलह में प्रोगणात्रीस (१६२६), पूनमगच्छ थापना जगीश । चौरासि अधिक सोलसें (१६८४) बरसें अंचलगच्छ मति बसैं ।।१११।। घरणा बोलना अन्तर कर्या, ते परण धणे जणे आदर्या, रजोहरण ने मुंहपत्ती, श्रावक ने नवि थापे छती ॥११३॥ श्रावक ने पडक्कमण न कहे, छ आवश्यक नवि दिहे । पाखी पाठम गणत्री करे, इम अन्तर अति घणा आचरे ॥११४।। बरस सत्तर से बीसे ठाम (१७२०), आगमगच्छ धराव्यो नाम । त्रण हुइ गरणत्रिए पर्व, पडिक्कमणे अन्तर छ सर्व ।।११५।। पोसह मांहि अन्तर घणो, अधिक मासे पजूसण तरणो। योग विधि नान्दि फेरघणा, मन विमास' जुप्रो तेह तणा ॥११६।। चित्रावल थकी नीकल्या, तपागच्छ नामे सांभल्या ॥११७॥ तिणे गच्छ आचरणा विज्ञान, नहिं मालारोपण उपधान । श्रावक ने परण नहिं चरवलो, इत्यादिक अन्तर सांभलो ।।११८।। तसु समाचारी नवि करे, सूत्र पंथ पण ढोलो धरै। परम्परामुख थापे घणी, न जाणीये ते किण ही करि ॥११॥ सूत्र अर्थ ने कडो देखी, जो कोई पूछे सविशेखी। परम्परा नुलेई नाम, लोक तणुं मन आणे ठाम ॥१२०॥ लोक न जाणे ते परे इसी, परम्परा दाखे छै किसी। परम्परा तो तेहज खरी, जे जिणवर गणधर पादरि ।।१२१।। पण जे थापे प्रापापणी, तेह ने माथे कोई न धणी । ते तो डाह्या माने कैम, सूत्र विचारी जुरो प्रेम ।।१२२।। सम्वत् पन्द्र पचासीए (१५८५) क्रियातरिणमति आणि हिए। थया रिसीसर क्रियावन्त, वैरागी देखीता सन्त ।।१२३।। ते मत सांचो कहे आपणो, दूजा न उत्थापे पणो । घणा पाट देखाडे भणी, परम्परा थापे प्रापणी ।।१२४।। न कहे साधुपणा नी विगत, पाट नाम नी थापे जुगत । पण जे जाण हुए ते जोय, साधुपणा विण पाट न होय ॥१२५।। गुरु लोपी पापी सहु कहे, तो कां छोडी अलगा रहे। सहु नुमाथां शिरु पोसाल, ते छांडी का पड्या जंजाल ।।१२६।। १. मन विमास-मनचाहे, २. आपापणी-अपनी ही अपनी । ३. तेहने माथे कोई न धणी-उस पर किसी का अंकुश नहीं, उसका कोई धरणीधोरी अर्थात् स्वामी नहीं। ४. डाह्या-चतुर . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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