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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जैन संघ की स्थिति
F: ६२३ पहरे कंकरण ने मुद्रणि, बाजबन्द बहिरखी जडी। स्नान करें बन्धे नव प्रहि, सदश जुमलु पहरे सहि ॥६॥ करे विलेपण रूडा गात्र, संघ संघाते करे जलजात्र । माला रोपण ने उपधान, ते तो माने दोष निदान ।।१।। महानिशीथ न ते सद्दहे, श्रावक ने चरवलु नवि कहै । दिन प्रति देवी नी थुई चार, प्रोघे दसि प्रलम्बे विचार ॥१२॥ युगप्रधान कालिक गुरु तणो, काउसग्ग करे चिहं लोगस्स तणो । अन्तर पडिक्कमणे पुण जोय, एवा बोल घणा तिहां होय ।।३।। वीर थकी वरसे चउदसे, चउसठ अधिको जागो रसे ।।१०३।। बड हेठे बडगच्छ थापिया, चौरासी पाचारण किया। ते चौरासी गच्छा जाणवा, बड गच्छा न मन प्राणवा ॥१०४।। तेहनी समाचारि एक, तेह मांहि नव भेद अनेक । बड पीपल सिद्धान्ती जोय, बोकडिया जाखडिया होय ।।१०५।। हारे जा जीराउल नाम, एवमादि चउरासी ठाम । एक उपाध्याय अलगो हतो, काले गुरु पासे पुह हतो ।।१०६।। तेह पण आचारज कियो, पंचासीमो गच्छ थापियो। तेथी केटले काले जोय, राजसभा मां चरचा होय ।।१०७।। कंस पात्र गाथी नीकली, खरतर नाम ठव्यो तिहां वलि । चिहुंतर अधिक वरस सहसोल (१६७४), कीधो आचरण दंदोल' ॥१०८।। बोल एक सौ चोवीस, फेरे जिनवल्लभ सूरीश । वलि अनेरागच्छ प्रोसवाल, कोरंटा साडेरावाल ॥१०६।। धर्मभूष नाणा पल्लीवाल, बे वन्दनिक चित्रावाल । चित्रावाल अने ब्रह्माणिया, मलधारा आदिक जाणीया ॥११०।।
यच्चोक्तं, कनक कनक मुद्रिका परिधानं न युक्तम्-तदप्ययुक्तं, यतस्तावन्मात्रकालं परिधीयमानं भूषणं न विभूषण हेतुः न वा परिग्रह, लथा परिणामाभावात् । - प्रवचन परीक्षा पृष्ठ १७१, उपाध्यायः धर्मसागर तपागच्छीय (श्री हीरविजयसूरि __ के सहपाठी एवं कृपापात्र) प्राचार्य के सभी गुणों से सम्पन्न श्रमण श्रेष्ठ प्राचार्य को प्रतिष्ठाचार्य के पद पर अधिष्ठित करते समय स्वर्ण कंकरण, स्वर्ण मुद्रिका, बहुमूल्य उत्तमोत्तम वस्त्र धारण करवाना तपागच्छीय उपाध्याय धर्मसागर ने उचित बताया है।
-सम्पादक
२. वीर निर्वाण सम्वत् १४६४ ३ मन प्राणवा=मनमाने,
४. गाथी=धनराशि। ५. दंदोल=उलट-पलट ।
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