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________________ लौकाशाह से पूर्व जैन संघ की स्थिति सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट, गणधरों द्वारा ग्रथित, चतुर्दश पूर्वधरों अथवा कम से कम दस पूर्वधर आचार्यों द्वारा द्वादशांगी में से निर्दृढ़ एकमात्र प्रागमों को ही सर्वोपरि, सर्वश्रेष्ठ एवं परम प्रामाणिक मानकर उनमें प्रतिपादित सिद्धान्तों, मान्यताओं, विधि-विधानों के अाधार पर भगवान् महावीर के धर्म संघ में चैत्यवासी आदि द्रव्य परम्पराओं द्वारा प्रविष्ट की गई विकृतियों के समूलोन्मूलन के साथ यदि पूर्ण क्रियोद्धार प्रारंभ में ही किये जाते तो न तो भगवान् महावीर का एक सूत्रता में ग्राबद्ध विशाल धर्म संघ विभिन्न छोटीछोटी सैकड़ों इकाइयों में विभक्त होता और न धर्म संघ उपरिवगित पारम्परिक कलह विद्वेष एवं धर्मोन्माद की रंगस्थली ही बनता। गणनातीत गच्छों में से कतिपय गच्छों का परिचय ऊपर दिया जा चुका है । उसमें, 'मित्ती मे सव्व भूएसु वेरं माझं न केणई' के सस्वर घोप से नित्य प्रति गगनमंडल को गुंजरित कर देने वाले गच्छों, गच्छाधिपतियों, गच्छानुयायियों में शताब्दियों तक किस प्रकार का विनाशकारी विषाक्त वातावरण व्याप्त रहा. पारस्परिक विद्वेष कलह का तांडव नृत्य, अथवा गच्छ विद्वेष प्रादि विश्व-बन्ध. वीतराग, हितंकर तीर्थंकर प्रभु महावीर के ये धर्म संघ करते रहे, उस दयनीय दशा का थोड़ा सा चित्रण गच्छों के परिचय में किया गया है। - उसी दयनीय दशा का दिग्दर्शन लोकभाषा में एक कवि ने मृधर्मगच्छद्र परीक्षा' नामक अपनी कृति में किया है। उसका लेश मात्र यहां प्रस्तुत किया जा रहा है : युग प्रधान कालिक सूरिने, केहे तेह न विचारे मने। कालक सूरि कवरणगच्छ थयो, कवरणाचार तिन थापियो ।।८।। कालक गच्छ भावड हरो सहि, पच्चखारण वन्दन तेने नहीं । पहलो पडिक मे इरियावहि, सामायिक विधि पछे कहि ।।८।। पाग्बी चौमासी चउदसे, करे पसरण चउथे रमें। करे प्रतिष्ठा जेणी वार, मांडे नांदि विशेष तेवार ।।८६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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