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________________ ४४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ कोई अवशिष्ट नहीं रहा । सर्वज्ञप्ररणीत एवं गणधरों द्वारा ग्रथित जैनागमों के उल्लेखानुसार श्रमण भगवान् महावीर की विद्यमानता में सिन्ध प्रदेश जैन धर्म का एक सुदृढ़ गढ़ था । सिन्धु-सौवीर के नाम से तीर्थप्रवर्तनकाल में विख्यात विशाल एवं शक्तिशाली सिन्ध महाराज्य का राजा उदयन भ० महावीर का अनन्य श्रद्धानिष्ठ भक्त था । श्रमरण भ० महावीर अपने विशाल शिष्य परिवार के साथ सिन्धु- सौवीर की राजधानी वीतभया नगरी में स्वयं पधारे थे । महाराजा उदायन ने भ० महावीर के प्रमोघ उपदेशों से प्रभावित हो सिन्धु- सौवीर का राजसिंहासन छोड़ अपने आराध्य प्रभु महावीर के पास श्रमरण-धर्म की दीक्षा अंगीकार की थी । घोर तपश्चरण एवं दुस्सा दारुरण उपसर्ग सहन कर श्रमणोत्तम उदायन ने वीतभया नगरी में ही केवलज्ञान - केवलदर्शन की अवाप्ति के साथ ही जन्म-जरामृत्यु के भवपाश को काट कर " यद्गत्वा न निवर्तन्ते " - अर्थात् जहां जाने के पश्चात् पुनः कभी लौटना नहीं पड़ता, उस मोक्षधाम को प्राप्त किया था । इस प्रकार सहस्राब्दियों तक जैनधर्म के सुदृढ़ एवं प्रख्यात गढ़ के रूप में रहे सिन्ध प्रदेश में, अरबों के आक्रमण एवं शासन के पश्चात् जैनधर्म का अस्तित्व तिरोहित हो गया । इस कारण इस्लाम के अभ्युदय, तलवार के बल पर इस्लाम के प्रसारार्थ विभिन्न काल में भारत पर मुसलमानों द्वारा किये गये आक्रमणों और भारतीयों द्वारा किये गये मुस्लिम आततायियों के प्रतिरोध का अति संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत किया जा रहा है । विश्व इतिहास के सिंहावलोकन एवं पर्यवेक्षण से यही प्रतिफलित होता है कि अज्ञात सुदीर्घ अतीत में ही न केवल भारत अपितु विश्व के अनेक भागों में धर्म के नाम पर मतमतान्तरजन्य मतभेद, सामाजिक भेदभाव, जातिभेद, ऊँच-नीच, विशिष्ट प्रविशिष्ट, वर्गभेद आदि के रूप में विश्वजनीन मानव समाज में वर्ग-संघर्ष एवं धार्मिक विद्वेष के बीज अंकुरित हो चुके थे । ईसा की छठी शताब्दी का अवसान होते-होते इस प्रकार के विभेद ने उग्र होते-होते वर्ग-विद्वेष, जाति-विद्वेष धार्मिक सहिष्णुता एवं पारस्परिक कलह का रूप धारण कर लिया । वर्ण- विद्वेष, जाति-पांति, ऊँच-नीच के अहं, बाह्याडम्बरपूर्ण भौतिक कर्मकाण्ड, छोटी-बड़ी जातियों, छोटे-बड़े प्रायः सभी राज्यों में सत्ता हथियाने की लिप्सा से उत्पन्न देशव्यापी युद्धोन्माद आदि के परिणामस्वरूप भारत का बहुत बड़ा भाग गृह कलह की रंगस्थली - सा बन गया । बहुसंख्यक निम्न वर्ण के लोगों को सवर्गों द्वारा न केवल उनके धार्मिक एवं सामाजिक अधिकारों से वंचित किया जाने लगा अपितु उनके साथ आये दिन सवर्णों का अमानवीय व्यवहार उत्तरोत्तर अभिवृद्ध होने लगा । ईश्वर, देवी- देव, तीर्थस्थल, धर्मस्थान, वेद-वेदांग आदि प्रार्ष ग्रन्थों का अध्ययन, धार्मिक कार्यकलाप - कर्मकाण्ड आदि को सवरण द्वारा अपनी ही बपौती बना लिया गया । निम्न-वर्ण अथवा वर्गों के लोगों को इन सब कार्य-कलापों से नितान्त दूर रखा जाने लगा । वस्तुतः मानव समाज के ही साधिकारिक एवं सम्पन्न कहे जाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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