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________________ [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ १. वीर निर्वाण सम्वत् २१६ की अवधि तक अर्थात् भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर आर्य सुधर्मास्वामी से लेकर दसवें पट्टधर आचार्य सुहस्ति के प्राचार्यकाल तक जनसंघ का नाम निर्ग्रन्थ अथवा अरणगारगच्छ के नाम से लोक में प्रचलित रहा। २. आर्य सुहस्ति के वीर-निर्वाण सम्वत् २९१ में स्वर्गस्थ हो जाने पर उनके पट्टधर आर्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध (गणाचार्य) के प्राचार्यकाल में भगवान् महावीर के धर्म संघ का नाम कौटिकगण के नाम से लोक विश्रुत हुआ। इन दोनों प्राचार्यों ने एक करोड़ बार सूरि मन्त्र का जाप किया था। इस कारण कहा जाता है कि एक कोटि बार सूरि मन्त्र के जाप के परिणामस्वरूप उनके गण का नाम कौटिक गरण प्रसिद्ध हुआ। __इस सम्बन्ध में दूसरी मान्यता यह भी है कि आर्य सूस्थित और सुप्रतिबद्ध क्रमशः कौटिक और काकन्दिक नगरी में उत्पन्न हुए थे और सुस्थित अपने सहयोगी प्राचार्य सुप्रतिबुद्ध से आयु एवं दीक्षा में बड़े थे, अतः आर्य सुस्थित के गृहस्थ जीवन के निवास स्थान कौटिक नगर के नाम पर भगवान् महावीर के धर्म संघ का नाम कौटिकसंघ-कौटिकगरण अथवा कौटिकगच्छ लोक में प्रचलित हुआ। यह दूसरा नाम कौटिक वीर निर्वाण सम्वत् २६१ से लेकर वीर निर्वाण सम्वत् ६११ तक लोक में प्रचलित रहा। ३. वीर निर्वाण सम्वत् ६११ में चन्द्रसूरि के नाम पर भगवान् महावीर का धर्मसंघ चन्द्रगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ४. वीर निर्वाण सम्वत् ६४३ में प्राचार्य चन्द्रसूरि के पट्टधर सामन्तभद्र के समय में भगवान् महावीर के धर्मसंघ का नाम वनवासीगच्छ प्रसिद्ध हुआ । प्राचार्य चन्द्रसूरि के पट्टधर आचार्य सामन्तभद्रसूरि का अन्तर्मन वस्तुतः पूर्ण विरक्ति के प्रगाढ रंग में रंगा हुआ था। वे शून्य देवायतनों, मठों एवं वनों में ही निवास करते थे इस कारण इनके गच्छ का नाम वनवासी के नाम से लोकप्रिय हुआ। इस सम्बन्ध में तपागच्छ पट्टावली का निम्नलिखित उल्लेख द्रष्टव्य है : "१६. सामन्तभद्दत्ति, श्रीचन्द्रसूरि पट्टे षोडशःश्री सामन्तभद्रसूरिः । स च पूर्वगतश्रुतविशारदो वैराग्यनिधिनिर्ममतया देवकुलवनादिस्वप्यवस्थानात् लोके वनवासीत्युक्तस्तस्माच्चतुर्थ नाम वनवासीति प्रादुर्भूतम् ।" इस प्रकार वीर निर्वाण सम्वत् ६४३ से वीर निर्वाण सम्वत् १४६४ तक श्रमण भगवान महावीर के धर्मसंघ का नाम वनवासी संघ गण अथवा गच्छ के नाम से लोक में प्रसिद्ध रहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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