________________
सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
बड़गच्छ
[ ६०१
५. जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है वीर निर्वारण सम्वत् १४६४ में उद्योतनसूरि के पट्टशिष्य श्री सर्वदेवसूरि के समय में श्रमण भगवान् महावीर के धर्मसंघ का नाम वटगच्छ - वटगरण अथवा वृहद् गच्छ के नाम से लोक में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ ।
श्री उद्योतनसूरि के सम्बन्ध में एक मान्यता यह भी प्रचलित है कि वे वनवासी गच्छ के शिष्य सन्ततिविहीन किन्तु अपने समय के उच्च कोटि के आगम निष्णात आचार्य थे । विभिन्न ८३ गच्छों के आचार्यों (जो सम्भवतः चैत्यवासी परम्परा के आचार्य हो सकते हैं ) ने अपने-अपने एक-एक शिष्य को आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करने के लिए वनवासी गच्छ के आचार्य श्री उद्योतनसूरि के पास भेजा । उसी समय चैत्यवासी परम्परा के अबोहर चैत्य के मठाधीश जिनचन्द्रसूरि के शिष्य वर्द्धमानसूरि ने क्रियोद्धार कर चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर दिया और वह किसी महान् त्यागी विशुद्ध चारित्रनिष्ठ ग्रागम मर्मज्ञ गुरु की खोज में अनेक प्रदेशों में भ्रमरण करता हुआ उद्योतनसूरि के पास आया | उद्योतनसूरि को आगमानुसारी विशुद्ध श्रमणाचार के प्रति पूर्णनिष्ठ कर्मठ एवं आगमों में निष्णात देखकर वर्द्धमान मुनि उनका शिष्य बन गया और अन्य विभिन्न ८३ गच्छों के मुनियों के साथ वह भी प्राचार्य उद्योतनसूरि से आगमों का ज्ञान प्राप्त करने लगा । विहार क्रम से अपने ८४ शिक्षार्थियों के साथ अनेक क्षेत्रों में भ्रमरण करते हुए वनवासी प्राचार्य उद्योतनसूरि टेली ग्राम की सीमा में पहुँचे । दिन का अवसान सन्निकट देख उन्होंने एक अति विशाल एवं विस्तीर्ण वट-वृक्ष के नीचे बैठ कर धर्माराधन करना प्रारम्भ कर दिया । मध्यरात्रि में उन्होंने देखा कि वृहस्पति रोहिणी शकट के मध्य में प्रवेश कर रहा है । उन्होंने अपने विद्यार्थियों से कहा"यह एक ऐसा शुभ मुहूर्त्त है कि इसमें यदि किसी की किसी पद पर स्थापना कर दी जाय तो उसकी यशोकीर्ति एवं सन्तति अप्रत्याशित वृद्धि को प्राप्त हो एवं चिरकाल तक यशस्वी रहे ।"
सभी शिष्यों ने एवं शिक्षार्थी मुनियों ने कहा :- "स्वामिन् ! हम आपके शिष्य हैं । कृपा कर आप हमारे मस्तक पर अपना वरदहस्त रख दीजिये और पदस्थापना कर दीजिये ।"
उद्योतनसूरि ने कहा :- - " वासक्षेप के लिये वासचूर्ण लाओ ।"
इस पर उन ८४ ही शिक्षार्थी मुनियों ने गली हुई लकड़ियां और सूखे कंड़े कत्रित कर उनका चूर्ण बनाया और गुरु को दिया । उस चूर्ण को अभिमन्त्रित कर उद्योतनसूरि ने विभिन्न गच्छों के उन ८३ शिष्यों के मस्तकों पर वासक्षेप कर उन्हें प्राचार्यपद प्रदान किया ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org