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________________ बड़गच्छ (वृहद्गच्छ) तपागच्छ पट्टावली के उल्लेखानुसार श्रमण भ० महावीर के ३५वें पट्टधर उद्योतनसूरि पूर्वी भारत से अर्बुदाचल की यात्रार्थ विहार करते हुए वीर नि० सं० १४६४ में एक दिन अर्बुदाचल की तलहटी में अवस्थित टेलीग्राम की सीमा में पहुंचे । दिवसका अवसान होने ही वाला था अतः वे वन में ही अपने शिष्य परिवार के साथ एक प्रति विस्तीर्ण एवं विशाल वट वृक्ष के नीचे ठहर गये । रात्रि - कालीन प्रतिक्रमण, ध्यान, स्वाध्याय आदि आवश्यक धार्मिक क्रियाओं से निवृत्त होने के अनन्तर मध्य रात्रि में उद्योतनसूरि ने देखा कि आकाश में रोहिणी शकट के मध्य में वृहस्पति प्रवेश कर रहा है । उन्होंने अपने शिष्यों को नक्षत्रों की इस प्रकार की गति का बोध कराते हुए कहा :- "यह ऐसा शुभ मुहूर्त्त है कि इस समय यदि किसी के मस्तक पर हाथ रखकर उसका किसी पद पर अभिषेक कर दिया जाय तो वह दिग्दिगन्त में चिरस्थायिनी कीर्ति का भागी बने ।" यह सुनते ही उनके शिष्यों ने कहा :- - "भगवन् ! श्राप हम पर ही कृपा कीजिये । हम सब आपके चरण चंचरीक दास हैं ।" उद्योतनसूरि ने तत्काल सर्वदेव मुनि आदि प्राठ शिष्यों को अपना उत्तराधिकारी बना उन्हें प्राचार्य पद पर अभिषिक्त किया। एक मान्यता यह भी है कि उद्योतनसूरि ने उस समय केवल अपने पट्ट शिष्य सर्वदेवसूरि को प्राचार्यपद प्रदान किया । वट-वृक्ष के नीचे अपने शिष्यों को सूरिपद प्रदान किया गया था इस कारण उस गच्छ का नाम “वटगच्छ" के नाम से लोक में प्रसिद्ध हो गया । इस गच्छ में उद्योतनसूरि के असाधारण प्रतिभा सम्पन्न एवं ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों को विशेष रूप से धारण करने वाली शिष्य सन्तति के कारण तथा इस गच्छ के प्रति विशाल रूप धर लेने के परिणामस्वरूप इस गच्छ को 'वृहद्गच्छ' के नाम से भी अभिहित किया जाने लगा । इस प्रकार श्रमरण भगवान् महावीर के धर्म संघ का पांचवां नाम वटगच्छ अथवा वृहद्गच्छ, विक्रम सम्वत् ९६४ तदनुसार वीर निर्वारण सम्वत् १४६४ में, लोक में प्रसिद्ध हुआ । भगवान् महावीर के धर्म संघ के वीर निर्वाण सम्वत् १ से लेकर वीर निर्वारण सम्वत् १४६४ तक एक हजार चार सौ चौसठ वर्ष तक की अवधि में जिन-जिन आचार्यों के काल में जिस-जिस समय ये पांच नाम लोक विश्रुत हुए उसका लेखा-जोखा निम्न प्रकार है Jain Education International -: For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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