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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जगड़ शाह [ ५६५ सराहना करते हुए कहा- "धन्यवाद ! तुमने बहुत अच्छा किया, जो इस क्षेत्र में मेरे हितों की रक्षा की । उसी क्षण जगड़ शाह ने उस पाषाणशिला को उठवा कर अपने निवास स्थान पर रखवा दिया और प्रतिदिन प्रातःकाल उस शिला पर बैठ कर दतौन करने लगा। एक दिन मध्याह्न वेला में जगड़ शाह भोजन करने के लिए बैठा ही था कि एक योगी उसके द्वार पर आया । शाह ने अपनी भार्या से कहा-"धर्मिष्ठे ! एक पुरुष पूर्णतः तृप्त हो जाय, उतनी जलेबी इन योगिराज को दे दो।" शाहपत्नी जलेबी से परिपूर्ण थाल लेकर द्वार पर उपस्थित योगी के समक्ष गई और उससे वह जलेबी भरा थाल लेने के लिए अभ्यर्थना करने लगी किन्तु योगी ने वे जलेबियां नहीं लीं और द्वार पर पूर्ववत् खड़ा रहा । गृहस्वामिनी ने जगड़ शाह से निवेदन किया कि ये योगिराज जलेबियां नहीं ले रहे हैं । इस पर जगड़ शाह ने पत्नी से कहा-"अच्छा तो सरले ! इन्हें इमरती (वर्तु लिका) से भरा चांदी का थाल दो।" शाहपत्नी ने तत्काल अपने पति के आदेश का पालन करते हुए एक भारी भरकम चांदी का थाल इमरतियों से भर कर उस योगी को सादर प्रदान किया। इससे योगी पूर्णत: सन्तुष्ट हुआ और बोला- "हे महादानी ! मैं तुम्हारी परीक्षा के लिए ही पृथ्वी पर भिक्षार्थ भ्रमण करने आया हूं। सच्चे दानी को देखने की अभिलाषा से मैं विगत ६ महीनों से भिक्षार्थ भ्रमण कर रहा हूं किन्तु मुझे अन्य कोई दानी दृष्टिगत नहीं हुआ । संसार का उद्धार करने में सक्षम तुम्हें आज देख कर मुझे परम सन्तोष हुआ है । वस्तुतः तुम सच्चे दानी हो और अभावग्रस्त संसार का उद्धार करने में सक्षम हो।" जगड़ शाह ने योगी की ओर जिज्ञासा भरी दृष्टि डालते हुए कहा"योगिन ! मेरे पास इतना धन कहां है ?" "श्रेष्ठिवर ! तुम्हारे पास जो यह पाषाणशिला है, यह वस्तुतः अक्षय द्रव्यमयी है।" यह कह कर योगी मौनस्थ हो उस पाषाणशिला की ओर निनिमेष दृष्टि से देखता रहा।" ___ योगी को देने योग्य वस्त्रादि लेने जगड शाह शीघ्रतापूर्वक अपने घर क एक कक्ष में गया और कतिपय वस्तुएं लेकर तत्काल द्वार की ओर लौटा परन्तु उसने देखा कि वह योगी द्वार के आस-पास कहीं नहीं है। योगी की तत्काल चारों ओर दूर-दूर तक तलाश करवाई गई, किन्तु वह कहीं नहीं मिला । जगड़ शाह ने समझ लिया कि वह कोई योगी नहीं अपितु उसका पूर्व जन्म का कोई स्नेही स्वजन था, 'जो उसे पुण्य एवं यश के उपार्जन का उपाय बताने अथवा अवसर प्रदान करने आया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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