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________________ ५६६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ तदनन्तर जगड़ शाह ने उस पाषाणशिला को बड़े ध्यान से देखना प्रारम्भ किया। बड़ी देर तक सूक्ष्म दृष्टि से देखते रहने के पश्चात् उसे शिला में एक स्थान पर संधि की आशंका हुई । शंकास्पद स्थान पर पानी डालने से उसे प्रतीत हुआ कि उस शिला में एक स्थान पर बड़े ही कलापूर्ण ढंग से ऐसी कारी लगाई हुई है, जिसको सहज ही कोई ज्ञात नहीं कर सकता। शाह जगड़ ने सावधानीपूर्वक बड़े ही कौशल के साथ शिला में लगी उस कारी को बड़ी कठिनाई से खोला तो यह देखकर उसके आश्चर्य और आनन्द का पारावार न रहा कि उस शिला के अन्दर न केवल एक अपितु पांच स्पर्श-पाषाण अर्थात् पारस रखे हुए हैं, जिनके स्पर्श मात्र से लोहा स्वर्ण हो जाता है। जगड़ शाह ने परीक्षा के लिये पास ही रखे अनाज तोलने के एक भारी से भारी लोह के बाट का पारस से स्पर्श किया तो तत्काल वह मणों भार का लौह-बाट विशुद्धतम स्वर्ण का हो गया। अब तो जगड़ शाह को दृढ़ विश्वास हो गया कि उसके गुरुदेव ने उसके पौषध की रात्रि में उसके सम्बन्ध में और दुर्भिक्ष के सम्बन्ध में अपने शिष्यों से जो कुछ कहा था, वह अक्षरशः सत्य सिद्ध होगा । जगड़ शाह ने तत्काल भावी भीषण दुभिक्ष से सम्पूर्ण देशवासियों की रक्षा करने हेतु प्रचुरतम मात्रा में धान्य संग्रह करने का दृढ़ संकल्प किया। तदनन्तर अपने संकल्प को कार्यरूप में परिणत करते हुए जगड़ शाह ने सहस्रों की संख्या में मूनीमों और कर्मचारियों को देश के विभिन्न स्थानों में अधिकाधिक धान्य संग्रह के लिये नियुक्त कर सर्वत्र विशाल अनाज भण्डारों का संग्रह करना प्रारम्भ कर दिया । मानव सेवा की उत्कट भावना से ओत-प्रोत जगड़ शाह ने अपने दृढ़ संकल्प को पूर्ण करने का अहर्निश प्रयास करते-करते दुर्भिक्ष के प्रारम्भ होने से एक वर्ष पूर्व ही आशंका से भी अधिक दीर्घकालीन दुभिक्ष की स्थिति में भी भूख के कारण किसी मनुष्य की मृत्यु न होने पावे, इतने धान्य भण्डारों का संग्रह कर लिया। जैसीकि चन्द्र द्वारा रोहिणी-शकट-भंजन से अाशंका की गई थी, वि० सं० १३१५ में सम्पूर्ण देश में बड़ा ही भीषण दुष्काल पड़ा। देशवासियों की दुर्भिक्ष से रक्षा करने हेतु शाह जगड़ ने दिल्ली, स्तम्भनपुर, धवलक्क, अनहिल्लपुरपत्तन आदि अनेक नगरों में ११२ सत्त्रागार मानवमात्र के लिये तत्काल प्रारम्भ करवा दिये । उन सत्त्रागारों में बिना किसी प्रकार के भेद-भाव के सभी लोगों को घृतयुक्त यथेप्सित सुस्वादु भोजन दिया जाने लगा। उद्वेलित सागर के जलौघों के समान लोगों के विशाल समूह उन दानशालाओं, भोजनशालाओं की ओर उमड़ पड़े और उन भोजनशालाओं में आकर दुर्भिक्षकाल में अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करने लगे । सुदीर्घावधि के उस दुभिक्षकाल में प्रतिदिन प्रातः सायं यही क्रम निरन्तर चलता रहा। इन भोजनशालाओं के अतिरिक्त जगड़ शाह ने सुरत्राण (सम्भवतः अलाउद्दीन खिलजी) को २१ हजार मूढक अर्थात् २१ लाख मण (१०० मन का एक मूढक), महाराजा बीसलदेव को ८ हजार मूढक अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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