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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ संघ के लिए, चतुर्विध संघ के प्रत्येक सदस्य के लिए सर्वथा अमान्य होंगी, चाहे उनका प्रतिपादन करने वाला प्राचार्य कितना ही बड़ा प्रभावक प्राचार्य क्यों न हो।
भगवान् महावीर के धर्मसंघ को एकता के सुदृढ़ सूत्र में सुचारु रूपेरण आबद्ध रखने वाला वस्तुतः यही एकमात्र अमोघ सूत्र है कि संघ में एकमात्र आगमिक मान्यताएं ही सर्वमान्य और शेष सभी अनागमिक मान्यताएं एकान्ततः अमान्य घोषित कर दी जायं। इससे बढ़कर अन्य कोई सूत्र संसार में नहीं हो सकता, जो चतुर्विध संघ को एकता के सूत्र में आबद्ध रखने में सदा के लिये सक्षम हो, स्थायी रूप से सक्षम हो। अनेक बार किये गये क्रियोद्धारों के उपरान्त भी इस प्रकार के निर्विरोध ठोस निर्णय के अभाव में जिनेश्वर प्रभु के धर्मसंघ की स्थिति विगत् १५०० वर्षों से अद्यावधि उत्तरोत्तर क्षीण से क्षीणतर एवं सोचनीय ही होती चली आ रही है।
छोटी से छोटी मान्यता से लेकर बड़ी से बड़ी मान्यता के सम्बन्ध में उठने वाले विवाद अथवा किसी प्रकार के समस्यात्मक प्रश्न के समाधान में एकमात्र पागम को ही अन्तिम रूप से निर्णायक मानने के स्थान पर चौदहों पूर्वो के विच्छेद से उत्तरवर्ती काल के प्राचार्यों द्वारा निर्मित भाष्यों, प्रतिष्ठा-विधियों, चैत्यपरिपाटियों आदि आदि ग्रन्थों को धर्मसंघ के एक बड़े वर्ग द्वारा न केवल प्रागमों के तुल्य ही अपितु चैत्यवासियों द्वारा आविष्कृत एवं कालान्तर में संघ के बहुत बडे भाग में रूढ हई अनेक प्रकार की अनागमिक मान्यताओं के समर्थन में तो आगमों से भी अधिक प्रामाणिक मान लेने के परिणामस्वरूप भगवान महावीर के महान् धर्मसंघ के संगठन, श्रमणाचार, श्रावकाचार एवं विश्वकल्याणकारी जैनधर्म के मूलभूत विशुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप में जो दुर्लक्ष्यपूर्ण स्थिति हुई है, वह किसी तटस्थ विचारक से छिपी नहीं है।
___ सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता आज इस बात की है कि सभी प्रकार के पूर्वाभिनिवेशों को हृदय से निकालकर संघ को साम्प्रतकालीन दयनीय स्थिति में पहँचाने वाली भूतकालीन भूलों पर विचार कर उनका बीज तक संघ में अवशिष्ट न रहने दिया जाय । तटस्थ दृष्टि से विचार करने पर साधारण से साधारण व्यक्ति को भी स्पष्टतः विदित हो जायगा कि इन विगत की भूलों को जन्म देने वाली सबसे बड़ी भूल यह हुई कि एकादशांगी में प्रतिपादित जैनधर्म की मूल मान्यताओं और आगमिक सिद्धान्तों की अवहेलना कर आगमेतर ग्रन्थों को आगमों के समकक्ष मानने की प्रवृत्ति श्रमण भगवान् महावीर के धर्मसंघ में आज से लगभग ।। हजार वर्ष पूर्व प्रचलित हो गई। इस मूल की भूल ने छोटी-बड़ी भूलों की एक बहुत बड़ी परम्परा को जन्म दिया। उन भूलों के कारण ही संघभेद, गच्छभेद, मान्यता भेद, पारस्परिक विद्वेष, स्वयं के गच्छ, स्वयं की मान्यता, स्वयं के गुरु,
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