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ऐतिहासिक तथ्य j
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तीर्थप्रवर्तन काल से ही परम्परागत सिद्ध करने के लक्ष्य से उन चैत्यवासियों के धर्मसंघ में विकृतियों के जनक शिथिलाचारपरायण विद्वान् श्रमणों द्वारा रचित ग्रन्थों को भी उनके आदेश से बहुसंख्यक जैनसंघ ने आगम तुल्य ही मान्य कर लिया । इस सबका ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण भयावह दुष्परिणाम हुआ कि व क्षमाश्रमरण की विद्यमानता तक अपने मूल प्राध्यात्मिक स्वरूप में चला आ रहा भगवान् महावीर का परम पुनीत, पतितपावन धर्मसंघ अगणित विकृतियों का, आगम विरुद्ध मान्यताओं का एवं बाह्याडम्बरपूर्ण शिथिलाचारपरायण द्रव्य परम्पराओं का सुदृढ़ गढ़ बन गया । एक मात्र आगम को ही सर्वोपरि परम प्रामाणिक मानने के स्थान पर पूर्वधर काल से उत्तरवर्ती काल के आचार्यों द्वारा निर्मित नियुक्तियों, चूणियों, भाष्यों, टीकात्रों के साथ-साथ श्रागमसम्मत सिद्धान्त से नितान्त प्रतिकूल द्रव्य परम्परानों, आडम्बरपूर्ण विधि-विधानों के परिपोषक प्रतिष्ठा पद्धति जैसे ग्रन्थों को येन-केन प्रकारेण स्पष्टतः आगमों से भी अधिक प्रामाणिक मान लेने के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुए मान्यता-भेद, गच्छ भेद, पारस्परिक कलह आदि कारणों से भगवान् महावीर का सुदृढ़ शक्तिशाली धर्मसंघ अगणित इकाइयों में विभक्त हो छिन्न-भिन्न हो गया ।
इस प्रकार की दयनीय स्थिति के दलदल से संघरथ का उद्धार करने के पुनीत लक्ष्य से समय-समय पर अनेक अध्यात्मनिष्ठ महापुरुषों ने कियोद्धार कर अनेक बार धर्म-क्रान्ति का शंखनाद पूरा । किन्तु भगवान् महावीर का चतुविध धर्म-संघ सर्वसम्मति से इस निर्णय पर नहीं पहुँच सका कि चतुर्विध धर्मसंघ के प्रत्येक सदस्य के लिये एक मात्र आगम ही सर्वोपरि, सर्वमान्य एवं परम प्रामाणिक हैं, न कि नियुक्ति, चूरिंग, भाष्य, टीका एवं पूर्वधर काल से उत्तरवर्ती समय के आचार्यों, विद्वानों द्वारा निर्मित ग्रन्थ । इसका यह अर्थ कदापि न लगाया जाय कि पूर्वधरों से उत्तरवर्ती काल के आचार्यों द्वारा निर्मित ग्रन्थों को सर्वथा अमान्य समझा जाय । उन ग्रन्थों में आगमों को मान्यताओं के अनुसार, जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों के अनुरूप जिन तथ्यों का प्रतिपादन किया गया है, वे तो वस्तुतः आगम के ही अंग अथवा अंश हैं । वे तो प्रागभवत् जैन मात्र के लिए प्रामाणिक एवं मान्य हैं ही, किन्तु उन ग्रन्थों में जहां कहीं भी आगमों से भिन्न अथवा आगमों से नितान्त विपरीत मान्यताओं का यदि कहीं प्रतिपादन अथवा विश्लेषण किया गया है तो उनका श्रागम प्रतिपादित तथ्यों के साथ तुलनात्मक - विवेचनात्मक दृष्टि से विश्लेषरण कर यदि उनमें किंचित् मात्र भी आगमों से विपरीत अथवा आगमिक भावना से भिन्न मान्यता का प्रतिपादन किया गया है तो बिना किसी अभिनिवेश के बिना किसी प्रकार के साम्प्रदायिक व्यामोह के उन ग्रन्थों में प्रतिपादित आगम विरुद्ध तथ्यों को एकान्ततः अमान्य एवं अप्रामाणिक घोषित कर दिया जाना चाहिये। जिन विधि-विधानों, मान्यताओं का आगमों में इंगित मात्र भी नहीं है, वे सब विधि-विधान, वे सभी मान्यताएं भविष्य में चतुर्विध
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