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________________ ܪ ܘܐ [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ कितने ही लोग गृहस्थों के लिए भी प्रतिमापूजन का निषेध करते हैं तो कतिपय लोग मुनियों के लिए भी प्रतिमापूजन की आवश्यकता बतलाते हैं। कितने ही लोग वीतराग प्रभु की मूर्ति को भी वस्त्राभूषणादि पहनाना आवश्यक मानते हैं तो कितने ही लोग मूर्ति का अभिषेक आदि करना अनावश्यक बताकर मूतिपूजा का निषेध करते हैं। जो जैनधर्म भरतादि उत्तम क्षत्रिय राजराजेश्वरों के द्वारा धारण करने योग्य था और जो अपनी विश्वकल्याणकारिणी निर्दोष प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप सार्वभौम विश्वधर्म था, वही जैनधर्म आज व्यापार करने वाले उन वैश्यों के हाथ में आ गया है, जो धर्म के विषय में भी अन्तर्मन से वणिक वृत्ति का अनुसरण कर रहे हैं, अर्थात् अपनी वस्तु को खरी और दूसरों की वस्तु को खोटी बताने की अपनी वरिणक वृत्ति को धर्म के सम्बन्ध में भी अक्षरशः चरितार्थ कर रहे हैं। अपनी-अपनी अलग-थलग दूकान लगाना ही जिनका एक मात्र कार्य है और अन्यों की तुलना में अपना निराला श्रेष्ठत्व प्रकट कर अपनी उपयोगिता सिद्ध करना ही जिनका धर्म है, ऐसे वैश्यों के हाथों में आकर यदि यह विश्वधर्म आज अनेक गणगच्छ आदि के भेदों में विभक्त हो रहा है, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। श्री जिनराज देव ने तो समस्त जीवों में समान भाव से जीवरक्षा को ही धर्म कहा है, जीवघात को नहीं।" । इस प्रकार की दुर्भाग्यपूर्ण दयनीय स्थिति के प्रादुर्भाव, प्रसार एवं प्राबल्य के पीछे सबसे बड़ा प्रमुख कारण यही रहा है कि अन्तिम पूर्वधर आर्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमरण के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् श्रमणाचार में शिथिलाचार का सूत्रपात करने वाले जिन शिथिलाचारी श्रमणों एवं श्रमणियों ने न केवल स्वयं ही शिथिलाचार का आश्रय लिया अपितु दुष्षम प्रारक कथवा कलिकाल की दुहाई देकर समस्त श्रमण व श्रमणी वर्ग के लिए शिथिलाचार को समयोचित एवं निर्दोष बताकर खुल्लमखुल्ला क्रियाशैथिल्य को प्रश्रय दे, उसका प्रबल प्रचार-प्रसार किया। उन श्रमण-श्रमरिणयों को भी केवल उनके वेष का लिहाज कर, उनके मात्र वेष को महत्त्व देकर प्रारम्भ में स्वल्प संख्यक और आगे चलकर बहुसंख्यक जैन संघ ने अपना पूज्य माना, साधु के गुणों का नितान्त अभाव होने पर भी उन्हें साधु के समान समादर दिया। देवद्धि से उत्तरकालीन जैन वांग्मय के अध्ययन से ऐसा आभास होता है कि जैन संघ का बहुत बड़ा भाग शिथिलाचार के प्रवर्तकों द्वारा मानो मंत्रमुग्ध किं वा ग्रहग्रस्त की भांति व्यामोहित कर दिया गया था। दूरगामी भयावह दुष्पिरिणामों की ओर लवलेश मात्र भी ध्यान न देकर तत्कालीन बहुसंख्यक जैनसंघ ने उन शिथिलाचारग्रस्त चैत्यवासियों के प्रत्येक आदेश को शिरोधार्य कर उनके द्वारा पाविष्कृत एवं प्रचालित अगणित अनागमिक मान्यताओं को मान्य कर लिया। उन आगमविरुद्ध मान्यताओं को समुचित एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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