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ऐतिहासिक तथ्य ]
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धर्मः समस्तजनताहितकारि वस्तु यद्बाह्यडम्बरमतीत्य सदन्तरस्तु। तस्मादनेकविधरूपमदायि लोकैयस्मिन्विलिप्यत उपेत्य सतां मनोऽकैः ॥२१॥ बिम्बार्चनं च गृहिणोऽपि निषेधयन्ति, केचित्परे तु यतयेऽपि विशेषयन्ति । तस्मै सदन्दुवसनाद्यपि केचनाहुः, नान्योऽभिषेचनविधावपि लब्धबाहुः ।।२२।। यः क्षत्रियेश्वरवरैः परिधारणीयः सार्वत्वमावहति यश्च किलानरणीयः । सवागतोऽस्ति वणिजामहहाय हस्ते, वैश्यत्वमेव हृदयेन सरन्त्यदस्ते ॥२६॥ येषां विभिन्नविपरिणत्वमनन्यकर्म, . स्वस्योपयोग परतोद्धरणाय मर्म ।। नो चेत्पुनस्तु निखिलात्मसु तुल्यमेव,
धर्म जगाद न वधं जिनराजदेवः ।।' अर्थात्-“अत्यन्त दुःख की बात है कि गृहस्थों और मुनियों में भी गणगच्छ के भेद ने स्थान प्राप्त किया और एक जैनधर्म अनेक गणगच्छ के भेदों में विभक्त हो गया।
. गणगच्छ भेद की उत्पत्ति के परिणामस्वरूप अपने-अपने पक्ष की मान्यताओं के परिरक्षण एवं परिवर्द्धन का अहंभाव अथवा व्यामोह प्रत्येक पक्ष में प्रकट हुआ । इस व्यामोह के वशीभूत प्रत्येक पक्ष अपनी मान्यताओं को सर्वश्रेष्ठ और अन्य सभी पक्षों की मान्यताओं को हीन मानकर पर पक्ष से ग्लानि-घृणा करने लगा। इस प्रकार लोग शनैः शनैः सत्य से दूर होते गये।
गणगच्छभेद के फलस्वरूप जैनधर्मानुयायियों में दुराग्रहपूर्ण ईर्ष्या और पारस्परिक कलहकारिता का प्राबल्य बढ़ गया। इस अन्तर्कलह के परिणामस्वरूप जैनसंघ की शक्ति क्षीण हो गई और इस बलहानि के कारण हमारे यहां अनेक प्रकार की बुराइयां उत्पन्न हो गईं।
जो जैन धर्म विश्व के प्राणिमात्र का परम हितकारी मित्र, सभी प्रकार के बाह्याडम्बरों से रहित विशुद्ध आध्यात्मिक वस्तु है, आत्मधर्म है, उस पतित पावन परम पुनीत जैनधर्म को भी लोगों ने अनेक प्रकार के आडम्बरपूर्ण बाह्यरूप प्रदान कर दिये, जिनके चक्र में पड़कर अथवा फंसकर सत्पुरुषों का मन भी विभिन्न प्रकार के संकल्प-विकल्पों में विलिप्त रहने लगा। १. वीरोदय काव्य-दि. मुनि श्री ज्ञान सागर जी म. .
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