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________________ ५८८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ प्र आवेगा तो पटा माफक मान्या जावेगा। श्री हेमाचारजी पेलां ही बडगच्छ रा भट्टारखजी ने बड़ा कारण सु श्री राज म्हे मान्यां जि माफक आपने आपरा पगरा गादी प्रपाटहवी तपगच्छ रा ने मान्या जावेगारी सुवाये देश म्हे आप्रे गच्छ रो देवरो तथा उपासरो वेगा जीरो मुरजाद श्री राजसु वा दुजा गच्छरा भट्टारख आवेगा सो राखेगा। श्री समगोरो समत १६३५ रा वर्ष आसोज सुद ५ गुरुवार ।" -तपागच्छ पट्टावली कल्याण विजयजी महाराज लिखित, पृष्ठ सं २३४ । हीरविजयसूरि वस्तुतः बड़े मृदुभाषी गुणग्राही और अपने समय के महान् प्रभावक प्राचार्य थे । तपागच्छ पट्टावली के उल्लेखानुसार इनके उपदेशों से प्रभावित होकर लौंकागच्छ के मेघजी ऋषि ने अपने तीस साथी साधुओं के साथ लौंकागच्छ का त्याग कर वि० सं० १६२८ में तपागच्छ की आम्नाय स्वीकार की। हीरविजयसूरि ने इनका नाम उद्योतविजय रक्खा। बादशाह अकबर के सान्निध्य में रहने वाले नागौर निवासी जैताशाह नामक जैन गृहस्थ ने भी हीरविजयसूरि के उपदेशों से प्रबुद्ध हो उनके पास श्रमण धर्म की दीक्षा अंगीकार की। हीरविजयसूरि ने उनका नाम जीतविजय रक्खा किन्तु लोग उन्हें बादशाही यति के नाम से ही अभिहित किया करते थे। जैताशाह को श्रमण धर्म में दीक्षित करने की घटना से हीरविजयसूरि का प्रभाव दूर-दूर तक फैला । हीरविजयसूरि के प्राचार्यकाल में उनके आज्ञानुवर्ती साधुओं की संख्या लगभग २ हजार और साध्वियों की संख्या ३००० होने का उल्लेख उपलब्ध होता है ।। यह वस्तुतः तपागच्छ का स्वर्णकाल था। तपागच्छ की निम्नलिखित १८ शाखाओं का उल्लेख एक पद्य में इस रूप में उपलब्ध होता है : बिजै १, विमल २, रुचि ३, सार ४, हर्ष ५, सुन्दर ६, सौभागी ७ । कीरत ८, धरम ६, उदार १०, कुशल प्रभ ११, हंस १२, सुरागी १३ ।। नन्द १४, सागर १५, चन्द १६, सोम १७, वर्द्धन १८ अधिकाई । तपगच्छ साख अठारह, ए ऋष सब ही भाई ।।१।। श्री तपागच्छ पट्टावली पंन्यास कल्याण विजयजी द्वारा सम्पादित, पृष्ठ संख्या २३५-२३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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