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________________ ५८२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ लौंकाशाह से पूर्व समय-समय पर जितने भी क्रियोद्धार किये गये उनमें यदि प्रमुख एवं अटल नियम अनिवार्य रूपेण सम्मिलित कर लिये जाते कि जिनेश्वर भगवान् के अनुयायी प्रत्येक जैन के लिये जिन प्ररूपित एक मात्र आगम ही सर्वोपरि प्रामाणिक होंगे और नियुक्तियां, भाष्य, वृत्तियां एवं चूणियां आगमों के समकक्ष किसी भी दशा में नहीं मानी जावेंगी, तो उस दशा में शिथिलाचारोन्मुख श्रमण-श्रमणी वर्ग को पंचांगी का सहारा लेकर शिथिलाचार की ओर उन्मुख होने का अवकाश ही नहीं रहता, उसका रास्ता ही खुला नहीं रहता । लौंकाशाह ने वि० सं० १५०८ में महान् धर्म क्रान्ति का सूत्रपात्र किया। स्वयं लौंकाशाह ने, उनके अनुयायियों ने तथा धर्म क्रान्ति के परिणामस्वरूप आगमों में प्रदर्शित विशुद्ध श्रमण पथ पर अग्रसर हुए जिनमती (जिन्हें विरोधी और अन्य लोग लूंकामती के सम्बोधन से सम्बोधित करने लगे) श्रमण-श्रमणी वर्ग ने धर्म के विशुद्ध आगमिक स्वरूप का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया। स्वल्प काल में ही लौंकाशाह द्वारा पुनरुद्घाटित धर्म के विशुद्ध स्वरूप के अनुयायियों की संख्या आशातीत रूप से अभिवृद्ध होती गई। देश के विभिन्न भागों में लौंकाशाह की कीर्ति-पताका फहराने लगी। लौंकाशाह द्वारा की गई धर्म क्रान्ति के परिणामस्वरूप विशुद्ध आगमिक पथ के अनुयायियों की देश के प्रायः सभी भागों में उत्तरोत्तर बढ़ती हुई संख्या को देखकर अन्य गच्छों ने अनुभव किया कि लुका के अनुयायियों के प्रचार-प्रसार से उनके अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। इस आशंका से प्रेरित होकर तपागच्छ के ५६वें पट्टधर प्रानन्द विमलसूरि ने वि० सं० १५८२ में क्रियोद्धार किया। क्रियोद्धार के पश्चात् वि० सं० १५८३ में घोर तपश्चरण के साथ निम्नलिखित ३५ बोलों अथवा नियमों की घोषणा की १. गुरु की आज्ञा से ही विहार करना। २. केवल वणिक् जाति के विरक्तों को ही श्रमण-श्रमणी धर्म में दीक्षित करना । अन्य जाति के लोगों को नहीं । ३. गीतार्थ की निश्रा में महासति (साध्वी) को दीक्षा दी जाय । ४. गुरुदेव दूर हों तथा अन्य कोई गीतार्थ मुनि पास में हों और उनके पास यदि कोई विरक्त दीक्षा लेने के लिए आये तो उसकी पूरी परीक्षा लेने के पश्चात् वेष परिवर्तन करवाया जाय और विधिपूर्वक दीक्षा गुरुदेव के पास ही दिलवाकर उसको योगोद्वहन करवाया जाय। ५. पाटन में गीतार्थों का समूह रहे। चातुर्मासावधि में दूसरे नगरों · में ६-६ ठाणा (संख्या) एवं गांवों में ३-३ ठाणा (संख्या) से चातु__ मसावास किया जाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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