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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] तपागच्छ [ ५८१ लौंकाशाह द्वारा किये गये प्रामूलचूल परिवर्तनकारिणी सर्वांगपूर्ण समग्र धर्मक्रान्ति के सूत्रपात के पीछे यह एक बहुत बड़ा कारण था, और थी एक हृदयद्राविणी पृष्ठभूमि । ___ जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है वर्द्धमानसूरि-जिनेश्वरसूरि, आर्यरक्षितसूरि, जगच्चन्द्रसूरि और सोमसुन्दरसूरि आदि महापुरुषों द्वारा प्रारम्भ किये गये क्रियोद्धार के पूर्णरूपेण सफल न होने के परिणामस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर का धर्मसंघ शिथिलाचार, विकृतियों और विकारों के दल-दल में उत्तरोत्तर गहरा धंसता ही चला गया। तपागच्छ पट्टावली के अनुसार श्रमण भगवान् महावीर के ५५वें पट्टधर श्री हेमविमलसूरि के प्राचार्यकाल में तो शिथिलाचार पराकाष्ठा तक पहुँच चुका था तथा उनके उत्तराधिकारी एवं श्रमण भगवान् महावीर के ५६वें पट्टधर अानन्द विमलसूरि के समय में तो न केवल शिथिलाचार ही, अपितु धर्म और श्रमणाचार के विशुद्ध स्वरूप में पनपे हुए विकार वस्तुतः विकृति की पराकाष्ठा को भी पार कर चुके थे। इस सम्बन्ध में विशेष कहने की आवश्यकता नहीं, केवल अानन्द विमलसूरि के मुख से प्रकट किये हुए तत्कालीन दयनीय परिस्थिति विषयक निम्नलिखित उद्गारों का उल्लेख मात्र ही पर्याप्त होगा : .........."अानन्द विमलसूरि ने श्री राजविजयसूरि को कहा-“तुम विद्वान् हो इसलिए हम तुम्हारे पास आये हैं, लुकामति जिनशासन का लोप कर रहे हैं, मेरा आयुष्य तो अब परिमित है, परन्तु तुम दोनों योग्य हो, विद्वान् हो और परिग्रह सम्बन्धी मोह छोड़कर वहीवट की वटियां जल में घोल दी हैं, सवा मन सोने की मूत्ति अन्ध कूप में डाल दी, सवा पाव सेर मोतियों का चूरा करवा कर फेंक दिया है, दूसरा भी सभी प्रकार का परिग्रह छोड़ दिया है ।............"१ __ अपने समय के एक महान् क्रियोद्धारक, घोर तपस्वी महापुरुष के उद्गारों से दो निर्विवाद तथ्य प्रकाश में आते हैं । पहला तो यह कि लौंकाशाह द्वारा की गई ऐतिहासिक समग्र धर्म क्रान्ति से पूर्व श्रमण भगवान महावीर के धर्म संघ का श्रमण वर्ग शास्त्रों में उल्लिखित श्रमण जीवन की सभी मर्यादाओं को ताक में रखकर शिथिलाचार में पूर्ण रूपेण प्रलिप्त और विपुल परिग्रह का स्वामी बन चुका था। दूसरा तथ्य यह प्रकाश में आता है कि लौंकाशाह द्वारा पूरे गये समग्र धर्म क्रान्ति के शंखनाद ने तत्कालीन श्रमण वर्ग की मोह निद्रा को भंग कर उसमें नवीन स्फूर्ति एवं चेतना का संचार किया। १. पट्टावली पराग संग्रह, द्वितीय परिच्छेद, पृष्ठ १८८-१८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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