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________________ ५८० 1 [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ करने वाले उस समय के साधुवर्ग में श्रमरणचर्या की अथ से इति तक के छोटे-बड़े सभी प्रकार के नियमों को एक प्रकार से ताक में रखकर विपुल परिग्रह युक्त भोगोपभोगों में प्रासक्त रहना, सर्व साधन सम्पन्न सुसमृद्ध गृहस्थ की भांति ऐश्वर्य पूर्ण जीवन-यापन करना प्रारम्भ कर दिया था । चतुर्विध संघ में इस प्रकार की दुर्लक्ष्यपूर्ण स्थिति से एक प्रकार की खलबलीसी उत्पन्न हो गई । संघरथ शिथिलाचार के घोर दलदल में धंसता ही चला गया । ऐसे विकट समय में आवश्यकता थी एक ऐसे महारथी महापुरुष की, जो शिथिलाचार के अथाह दलदल में आधुर फंसे संघरथ को बाहर निकाल कर आगमानुसारी श्रमरणचर्या के प्रशस्त पथ पर जनता को आरूढ़ कर सके । आवश्यकता आविष्कार की जननी है । तत्कालीन इस अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति हेतु लोकाशाह नामक महापुरुष ने जिनशासन के संघरथ को विकारों से प्रतप्रोत शिथिलाचार के दलदल से बाहर निकालने का बीड़ा उठाया । शाह ने भी वर्द्धमानसूरि - जिनेश्वरसूरि जैसे महान् क्रियोद्धारकों की भांति एकमात्र सर्वज्ञ प्ररणीत, गणधर - ग्रथित एवं चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा निर्यूढ आगमों को ही सर्वोपरि प्रामाणिक मानते हुए उन प्रागमों के आधार पर एक सर्वांगपूर्ण धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया । श्रमरण भगवान् महावीर के धर्मसंघ में शिथिलाचार, आडम्बर, विकार एवं आगम विरुद्ध मान्यताओं का लवलेश तक अवशिष्ट न रहे इस प्रटल निश्चय के साथ लौंकाशाह ने लोक के समक्ष यह उद्घोष किया कि जैन धर्म वीतराग जिनेन्द्र तीर्थंकर प्रभु द्वारा प्रदर्शित धर्म है, न कि किसी प्राचार्य द्वारा प्रदर्शित । अतः प्रत्येक जैन धर्मानुयायी के लिए जिनप्ररणीत प्रागम ही सर्वोपरि मान्य एवं परम प्रामाणिक हो सकते हैं, न कि प्राचार्यों द्वारा रचित नियुक्तियां, भाष्य, वृत्तियाँ और चूरियाँ आदि पंचांगी । काशाह ने यह अनुभव किया कि धर्म के श्रागमिक स्वरूप और तीर्थ स्थापना के समय से चले आ रहे विशुद्ध मूल श्रमरणाचार में चैत्यवासी परम्परा द्वारा उत्पन्न की गई विकृतियों के उन्मूलन के लिए समय-समय पर महापुरुषों द्वारा जितने भी क्रियोद्धार किये गये हैं, वे वस्तुतः स्तुत्य होते हुए भी सर्वांगपूर्ण क्रियोद्धार की कोटि में नहीं आ पाये और उनकी सफलता के लिए चतुर्विध संघ से अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। उन क्रियोद्धारों का सूत्रपात करते समय यदि धर्मसंघ में बुराइयों प्रविष्ट होने के द्वारों को ही बन्द कर दिया जाता, केवल आगमों को ही सर्वोपरि प्रामाणिक मानकर नियुक्तियों भाष्यों, वृत्तियों एवं चूरिंगयों को आागमों के समकक्ष ही प्रामाणिक न मानकर शिथिलाचार के समस्त प्रवेश द्वारों को एक बार में ही अवरुद्ध कर दिया जाता तो उस समग्र क्रान्ति के पश्चात् बारबार के क्रियोद्धार की आवश्यकता ही नहीं रहती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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