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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] तपागच्छ [ ५७६ के मन में सम्मान घटने लगा। इससे शिथिलाचारी एवं यति वर्ग के मन में सोमसुन्दरसूरि के प्रति विद्वेषाग्नि प्रज्वलित हुई। यति वर्ग ने अपने विश्वस्त उपासक से एक हिंस्र प्रकृति के पुरुष को ५००) टके (रुपये) का लालच देकर रात्रि के समय सोमसुन्दरसूरि का प्राणान्त कर देने के लिये भेजा। सोमसुन्दरसूरि की हत्या के लिये यतियों द्वारा प्रतिबद्ध किया गया वह व्यक्ति रात्रि के समय उपाश्रय में प्रविष्ट हुआ। वह पुरुष एकान्त में सोये हुए सूरिवर्य पर शस्त्र का प्रहार करने के लिये उद्यत हुआ कि उसी समय सूरिवर्य ने करवट बदलते समय प्रमार्जनी (रजोहरण पूँजणी) से अपने शरीर का प्रमार्जन किया। चन्द्रमा के प्रकाश में यह देखते ही वह पुरुष स्तब्ध रह गया। उसके मन में सहसा विचार आया "जो महापुरुष निद्रितावस्था में भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव-जन्तुओं पर करुणा करके उन्हें रजोहरण से बचाने का प्रयास करता है, इस प्रकार के दया सागर दीनबन्धु महासन्त का वध कर मैं निश्चित रूप से रसातल में जाकर अनन्त काल तक घोरातिघोर दारुण दुःख भोगता रहूंगा। धिक्कार है मुझे !" यह कहते हुए वह पुरुष प्राचार्यश्री सोमसुन्दरसूरि के चरणों पर अपना मस्तक रख बारम्बार उनसे क्षमा-याचना करने लगा । उसने पूरा वृत्तांत सोमसुन्दरसूरि से निवेदन किया । सूरिवर्य ने शान्त, मधुर शब्दों में उस पुरुष को आश्वस्त करते हुए उसे सम्यक्त्व का बोध दिया। इस घटना से उस समय की विकट स्थिति का आभास होता है कि उस समय का साधुवर्ग किस दयनीय दशा तक पहुँच चुका था। वह स्वयं तो शिथिलाचार को छोड़ने के लिये किंचित्मात्र भी उद्यत नहीं था और यदि कोई मुमुक्षु महापुरुष शिथिलाचार के उन्मूलन हेतु प्रयत्नशील होता तो उस महापुरुष के प्राणों का अन्त कर देने तक के लिए कृत-संकल्प हो जाता था। जैन मध्ययुगीन वाङ्मय इस प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है कि समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने क्रियोद्धार किये। कुछ समय तक विशुद्ध श्रमणाचार का समीचीनतया परिपालन भी क्रियोद्धार के माध्यम से नवोदित श्रमण परम्परागों में होता रहा, किन्तु "छिद्रेष्वनाः बहुली भवन्ति" इस नीतिसूक्ति के अनुसार एक बार स्खलना हो जाने के अनन्तर स्खलनाओं का अनवरत क्रम चलता ही रहा । तपागच्छ के ५२वें पट्टधर रत्नशेखरसूरि के समय से ही श्रमण-श्रमणी वर्ग में शिथिलाचार उत्तरोत्तर अभिवृद्ध होने लगा। “सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि जाव जीवाए तिविहं तिविहेणं ।" इस शास्त्रीय पाठ से जीवन-पर्यन्त पंच महाव्रतों को चतुर्विध संघ की साक्षी से अंगीकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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