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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास
रण निवि लागोलाग थाय ते दर्म्यान तेमज विगय वापरवानां दिवसे निवियतां ग्रहण न करू, तेमज बे दिवस लागट कोई तेवा पुष्ट कारण विना विगय वापरू नहिं ।
३६.
दरेक आठम चउदश ने दहाडे शक्ति होय तो उपवास करू, नहि तो ते बदल बे आयंबिल के रण निवि करि प्रपूं ।
-भाग ४
दर रोज द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव गत अभिग्रह धारण करू, केम के तेम न करू तो प्रायश्चित आवे तेम जीतकल्प मां का छे ।
वीर्याचार यथाशक्ति पालूं एटले हमेशां पांच गाथादिक ना अर्थ ग्रहण करि मनन करू ।
आखा दिवस मां संयम मार्ग मां प्रसाद करनाराम्रो ने हं पांच बार हितशिक्षा प्रायूं ने सर्व साधुनोने एक मात्रक परठवी पूं ।
दर रोज कर्मक्षय अर्थे चौवीस के वीस लोगस्स नो काउस्सग्ग करूं अथवा तेटला प्रमारण सज्झाय ध्यान काउस्सग्ग मां रही स्थिरताथी करू । निद्रादिक प्रमाद वड़े मण्डली मां बराबर वखते हाजर न थइ शकाय तो एक आयंबिल करू ने सर्व साधुप्रोनी वैयावच्च करूं ।
संघाड़ादिक नो कसो सम्बन्ध न होय तो परण बाल के ग्लान साधु प्रमुख पहिरण करि पूं, तेमज तेमना खेल प्रमुख मल नीं कुण्डी परठववा fबगेरे काम पर यथाशक्ति करि पूं ।
उपाश्रय मां पेसतां "निस्सिहि" अने निकलतां "आवस्सहि" कहेवी भूली जाऊं तो तेमज गाम मां पेसतां - निसरतां पग पूंजवा विसरि जाऊं तो याद आवे तेज स्थले नवकार मन्त्र गर ।
३४. और ३५. कार्य प्रसंगे वृद्ध साधुओ ने 'हे भगवन् ! पसाय करि' अने लघु साधु ने 'ईच्छकार' एटले तेमनी इच्छानुसारे करवानु कहेवु भूली जाऊं तो तेमज सर्वत्र ज्यारे ज्यारे भूल पड़े, त्यारे त्यारे “मिच्छामि दुक्कडं " एम
हे जोई ते विसरी जाऊं तो ज्यारे संभारि प्रावे अथवा कोई हितस्वी संभारि पे त्यारे तत्काल नवकार मन्त्र गर ।
वडील ने पूछयां वगर विशेष वस्तु लऊं दऊं नहीं अने वडील ने पूछीनेज सर्व कार्य करू ं परण पूछयां वगर करू नहि । विगेरे विगेरे ।
- पंन्यास श्री कल्याण विजयश्री लिखित तपागच्छ पट्टावली – पृष्ठ सं. १६०-१९३ ।
सोमसुन्दरसूरि ने अपने गच्छ में शिथिलाचार के उन्मूलन के लिये अनेक प्रकार के कठोर कदम उठाये । इसके उपरान्त भी जो श्रमरण शिथिलाचार के वशीभूत रहे उन्हें उन्होंने संघ से निष्कासित भी किया । सोमसुन्दरसूरि के विशुद्ध श्रमणाचार की कीर्ति चारों और प्रसृत हो गई । शिथिलाचारियों के प्रति लोगों
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