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________________ . [ ५८३ सामान्य श्रृंतधर काल खण्ड २ ] तपागच्छ ६. गुरु महाराज यदि दूर हों तो पत्र के माध्यम से चातुर्मासावास की .. प्राज्ञा गुरुदेव से प्राप्त की जाय । . ७. किसी साधु को अकेले (एकाकी) विहार नहीं करने दिया जाय । ८. यदि कोई साधु एकाकी ही विहार करता हुआ पाए तो उसे मांडले पट्ट पर न बिठाया जाय। ६. दोज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूणिमा इस प्रकार एक मास में १२ दिन तक भिक्षा, गोचरी में विकृतियां (विगय) न बहरी जाए एवं इन तिथियों के दिन उपवास, प्राचाम्ल, नीवी आदि की यथाशक्ति तपस्या की जाय। १०. तिथि वृद्धि की अवस्था में एक दिन विगय ग्रहण न की जाय । ११. पात्रों पर रंग रोगन न किया जाय । १२. पात्रों को काला-कलूटा रक्खा जाय । उन्हें आकर्षक अथवा चमकीला न रखा जाय । १३. योगोद्वहन के बिना आगमों का वाचन न किया जाय । १४. एक समाचारी वाले साधु यदि किसी समय दूसरे उपाश्रय में रहें तो . गीतार्थ के पास उपस्थित हो उन्हें वन्दना करने के पश्चात् शय्यान्तर का घर पूछ कर भिक्षाचरी करनी चाहिये। १५. एक दिन में आठ थुई (स्तुति) वाले देव का एक बार वन्दन किया जाय। १६. दिन में ढाई हजार (श्लोक प्रमाण) स्वाध्याय-ध्यान करना चाहिये। यदि इतना न बन पड़े तो कम से कम सौ श्लोक प्रमारण स्वाध्याय ध्यान अवश्यमेव किया जाय । १७. वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि उपकरण साधु स्वयं वहन करे । किसी भी गृहस्थ से उनका वहन न करवाए। १८. वर्ष भर में एक बार ही वस्त्र प्रक्षालन किया जाय, दूसरी बार नहीं। १६. पौशाल में कोई भी साधु न जाय । । २०. पौशाल में पढ़ने के लिए भी न जाय । २१. किसी लेखक के पास से एक हजार श्लोक प्रमाण से अधिक का आले खन न करवाया जाय । २२. द्रव्य देकर किसी भट्ट (ब्राह्मण) के पास कोई (साधु) न पढ़े। २३. जिस गांव में चातुर्मासावास किया वहां चातुर्मासावसान के अनन्तर वस्त्र ग्रहण करना साधु के लिए कल्पनीय नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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