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________________ ५६४ ] । जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ प्रतिबोध देकर उससे जीवहिंसा का त्याग करवाया। देवी प्राचार्यश्री के उपदेश से अतीव सन्तुष्ट हुई और उसने पृथ्वीतल में छिपे पड़े स्वर्ण तथा रजत के भण्डार उन्हें बताते हुए प्रार्थना की :--"महात्मन् ! अाप यह सब स्वीकार कीजिये ।" प्राचार्यश्री ने उन्हें अस्वीकार करते हुए कहा :- "देवी ! हम पंच महाव्रतधारी निर्ग्रन्थ श्रमण हैं। हमें सोने और चांदी से कोई मोह नहीं है और न हमें इनकी आवश्यकता ही है। तुम्हें जो यह स्वर्ण और रजत दृष्टि गोचर हो रहा है वह सब हमारे लिये मिट्टी के ढेले के समान है। सभी प्रकार की हिंसा का त्याग कर तुम अहिंसक तो बन ही चुकी हो, हां, मुझे इस बात से बड़ी प्रसन्नता होगी यदि तुम अब सच्चे देव, गुरु और धर्म में श्रद्धा रखने वाली सम्यग्दृष्टि देवी बन जायो।" - आचार्यश्री अभयदेवसूरि की आज्ञा को शिरोधार्य कर वह जैनधर्म के प्रति श्रद्धा रखने वाली सम्यग्दृष्टि देवी बन गई। ६. श्री जिनचन्द्रसूरि :---उपरिलिखित तीन प्राचार्यों के दीर्घ कालीन आचार्यकाल के पश्चात् आगमिकगच्छ के छ8 पट्टधर आचार्य जिनचन्द्रसूरि हुए। आचार्यश्री जिनचन्द्र का परिचय देते हुए पट्टावलीकार ने लिखा है : श्री सर्वानन्दगुरुणां, पट्टांबरभूषणो नभोरत्नम् । षटतर्के सार्वभोमस्ततोऽभवत् सूरि जिनचन्द्रः ।।६।। अर्थात्-आगमिकगच्छ के पट्टक्रम में सर्वानन्दसूरि के पश्चात् सूर्य के समान तेजस्वी तार्किक चक्रवर्ती षड्भाषा कवि सार्वभौम वाग्मीन्द्र श्री जिनचन्द्रसूरि प्राचार्य हुए। आपको अनेक राजारों महाराजाओं ने सन्मान दिया। आगमिक गच्छ की पट्टावली के अनुसार एक समय गुहिलवाड राज्य की राजधानी लोलियाणक नगर के १२२० बीसा श्रीमाली श्रावकों ने अपने श्रीसंघ की ओर से जिनचन्द्रसूरि के समक्ष अाग्रहभरी विनती की कि वे लोलियाणक नगर में चातुर्मासावास करें। संघ की विनती को स्वीकार कर प्राचार्यश्री ने लोलियाणक नगर में चातुर्मास किया और वहाँ पर वे नेमि चरित्र पर व्याख्यान देने लगे। भगवान् श्री नेमिनाथ के चरित्र पर व्याख्यान करते समय एक दिन श्रीकृष्ण एवं जरासंघ के युद्ध का प्रसंग पाया उस प्रसंग में प्राचार्यश्री जिनचन्द्रसूरि ने जब वीर रस का अपनी प्रोजस्वी भाषा में वर्णन किया तो वहाँ श्रोतागण में उपस्थित गुहिलवाड के मोखरा नामक राजा ने अपने एक सौ सुभटों के साथ नंगी तलवारें हाथ में लिए वीररस से ओत-प्रोत हो 'मारो-मारो' के घोष करना प्रारम्भ किया। इस युद्ध जैसे दृश्य को देखकर परिषद् भय-विह्वल हो उठी । यह सब कुछ वीर रस के समुचित रूपेण वर्णन का ही प्रतिफल है यह समझते हुए प्राचार्यश्री जिनचन्द्र ने शान्तरस से प्रोत-प्रोत उपदेश देना प्रारम्भ किया। प्राचार्यश्री के शान्तरस पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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