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________________ मामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] आगमिकगच्छ [ ५६३ अर्थात् प्राचार्यश्री धर्मघोष के दिवंगत होने के अनन्तर उनके पट्ट पर यशोभद्रसूरि को प्रतिष्ठित किया गया। वे महान् यशस्वी और आगमिकगच्छ को समुन्नत एवं सशक्त बनाने वाले प्राचार्य सिद्ध हुए। अनुक्रम से उन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूपी रत्नत्रयी के मूर्त स्वरूप तीन प्राचार्यों को अपने पट्ट पर मनोनीत किया। . ५. सर्वानन्दसूरि : अभयदेवसूरि एवं वज्रसेनसरि :---प्राचार्यश्री यशोभद्रसरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् उनके पट्ट पर ज्ञान, दर्शन और चारित्र के मूर्त स्वरूप तीन श्रमणोत्तमों को एक साथ अभिषिक्त किया गया, जिनके नाम हैं सर्वानन्दसूरि, अभयदेवसूरि और वज्रसेनसूरि । पट्टावलीकार ने निम्नलिखित तीन श्लोकों में इन तीनों प्राचार्यों का परिचय दिया है : प्राद्यस्तत्र प्रोच्यदानन्दकन्द, ___ श्रीमान् सर्वानन्दसूरिविरेजे । यः सार्वीयं वाक्यसर्वस्वमुा ___माज्ञारूपं सर्वदा विश्रुकारम् ।।६।। तदनु मनुजदैवैर्वन्द्यपादारविन्दो, विदलित कुमतौघश्चारुचारित्रपात्रम् । सुगुरुरभयदेवो गीतमाकारधारी, गुणगणमरिणखानि सत्तपा ब्रह्मचारी ।।७।। श्री वज्रसेनसूरिस्तार्तीयीकरस्तत स्त्रिरत्नाढ्यः । श्री सिद्धान्तविचारं, निकषा निकषायितं येन ॥८॥ अर्थात् यशोभद्रसूरि के पट्ट पर जो एक साथ तीन प्राचार्य आसीन हुए उनमें से पहले का नाम सर्वानन्दसूरि था । सच्चिदानन्द घन स्वरूप प्रभु के चिन्तन में लीन वे सदा आनन्दमग्न रहते थे। उनके मुख कमल के दर्शन मात्र से ही दर्शक ग्रानन्द-विभोर हो उठता था। वे अपने समय में 'वचनसिद्ध' प्राचार्य के रूप में सर्वत्र विख्यात हुए। दुसरे प्राचार्य का नाम था 'अभयदेव'। वे नर, नरेन्द्र, देवादि द्वारा वन्दित, समस्त पाप पुज के विनाश में अहर्निश निरत परम क्रियानिष्ठ आचार्य थे। वे सभी गुणों की खान, तपस्वी और घोर ब्रह्मचारी थे। तीसरे प्राचार्य का नाम था 'वज्रसेनसूरि' । वे रत्नत्रयी की समृद्धि से समृद्ध थे। उनका प्रागमों का तलस्पर्शी ज्ञान सदा ही कसौटी पर खरा उतरता था। पट्टावलीकार ने अभयदेवसूरि के सम्बन्ध में लिखा है कि विहार-क्रम से वे एक दिन आरासन नगर में गये । आपने उस क्षेत्र की अधिष्ठात्री अम्बा देवी को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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