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________________ ५६२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ निरस्तदोप कृतपुण्यपोष, श्री धर्मघोष स्वगणं पुपोष ॥४।। । अर्थात् आगम रूपी अथाह समुद्र को अपनी चन्द्रमा के समान अमृत वर्षिणी शीतल किरणों द्वारा उत्ताल तरंगों से तरंगित कर देने वाले, आगमिक रहस्यों से प्रोत-प्रोत अपनी तत्वप्रकाशिनी वाणी से जन-जन के अन्तर्मन में घर किये अज्ञानान्धकार को छिन्न-भिन्न कर उनके पाप-पुज को प्रक्षालित कर देने वाले, एवं चारों ओर पुण्य ही पुण्य का धरातल पर प्रसार एवं पोषण करने वाले प्राचार्यश्री धर्मघोष ने आगमिक गच्छ के तृतीय पट्टधर प्राचार्य के रूप में अपने प्रागमिक गच्छ को जन-जन के लिए अनुकरणीय एवं लोकप्रिय बना दिया। आचार्यश्री धर्मघोषसूरि एकदा प्रांतरउल्लि नामक ग्राम में रात्रि के समय जब उपाश्रय में सोये हुए थे उस समय एक काले विषधर ने उन्हें डस लिया। सर्प विष को बड़ी तीव्र गति से अपने शरीर में व्याप्त होते देख धर्मघोषसूरि ने सूरि मन्त्र का जाप किया । सूरि मन्त्र के जाप से विष का आवेग तत्काल अवरुद्ध हो गया । सूर्योदय होते ही दर्शनार्थ आये हुए श्रद्धालु श्रावकों को जब यह विदित हुआ कि काले सर्प ने काट लिया है तो वे तत्काल दौड़े हुए देवी के मठ में गये और मठपति से प्रार्थना करने लगे कि वे शीघ्रतापूर्वक चल कर उनके गुरु धर्मघोष सूरि के सर्पविष का निवारण करें। मठपति ने श्रावकों से कहा :-"यदि तुम्हे अपने गुरु को सर्प के विष से विमुक्त करना है तो उन्हें तुम मेरे यहां मठ में ले आयो। मैं वहां नहीं चलूंगा।" श्रावक हताश हो धर्मघोषसूरि के पास आये । इधर श्रावकों का आना हुआ और उधर देवभद्रसूरि विहारक्रम से विचरण करते हुए वहां पहुंचे । चिन्तामग्न श्रावकों के मुख से जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि रात्रि में धर्मघोषसूरि को काले सर्प ने डस लिया है तो देवभद्रसूरि ने तत्काल धर्मघोषसूरि के शरीर के विष को निकाल दूर किया । घोर तपस्वी देवभद्रसूरि के कर-स्पर्श मात्र से धर्मघोषसूरि पूर्णतः निविष एवं स्वस्थ हो गये। धर्मघोषसूरि ने अपने प्राचार्यकाल में जिनशासन की महती प्रभावना के साथ-साथ प्रागमिकगच्छ को एक सशक्त धर्मसंघ का स्वरूप प्रदान किया। ४. यशोभद्रसूरि :-आचार्यश्री धर्मघोषसूरि के स्वर्गस्थ होने पर श्री यशोभद्रसूरि आगमिकगच्छ के चतुर्थ पट्टधर के रूप में प्राचार्यपद पर प्रतिष्ठित किये गये। उनके सम्बन्ध में पट्टावलीकार ने निम्नलिखित श्लोक के माध्यम से उनका परिचय दिया है। तस्माद्यशोराशिविभासिताशः, __श्रीमान् यशोभद्रमुनीन्दुरासीत् । रत्नत्रयी मूत्तिमतीवसम्यग्, सूरित्रयीयस्यबभूव पट्टे ।।५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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