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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] प्रागमिकगच्छ
[ ५६५ व्याख्यान को सुन कर राजा मोखरा और उसके सैनिक शान्त हो अपनी-अपनी तलवारों को म्यान में रख शान्त मुद्रा में पुनः अपने स्थान पर बैठ गये और आचार्यश्री का व्याख्यान दत्तचित्त हो सुनने लगे। शान्तरस के वर्णन के अनन्तर आचार्यश्री ने करुण रस से ओत-प्रोत उपदेश देना प्रारम्भ किया। आचार्यश्री की करुणा रस से सिक्त वाणी को सुनकर वह गुहिलपति मोखरा उपस्थित श्रावकों के
साथ करुणार्द्र हो रो पड़ा । तदनन्तर व्याख्यान में प्रसंग आने पर आचार्यश्री ने . हास्य रस भरे कथानक पर प्रवचन देना प्रारम्भ किया। आचार्यश्री की व्याख्यान
शैली में ऐसा चमत्कार था कि हास्यरस से ओत-प्रोत उस कथानक को सुनकर सभी श्रोतागरण हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये।
आचार्यश्री जिनचन्द्र की इस प्रकार की चमत्कारपूर्ण व्याख्यान शैली पर मुग्ध होकर गुहलपति मोखरा ने उनकी वाणी को 'नव रसावतार तरंगिणी' के विरुद . से विभूषित किया। महाराजा मोखरा आचार्यश्री की विद्वत्ता, उनके तपोपूत जीवन, एवं उनकी व्याख्यान शैली पर ऐसा मुग्ध हुआ कि प्रतिदिन व्याख्यान के समय सबसे पहले आकर प्राचार्यश्री के पट्ट के पास, पट्ट की ओर मुंह किये बैठ जाता। वह प्रारम्भ से लेकर अन्त तक आचार्यश्री के व्याख्यान को बड़ी उत्कण्ठा के साथ सुनता।
___ सम्भवतः जंघाबल के क्षीण हो जाने के कारण आचार्यश्री जिनचन्द्रसूरि लम्बे समय तक लोलियाणक नगर में रहे । उन पर सरस्वती की पूर्ण कृपा थी। अतः दर्शनार्थियों का उनके यहाँ तांता-सा लगा रहता। राजा और प्रजा सभी उनके प्रति असीम आदरभाव रखते थे।
एक समय उस नगर में दामोदर नामक एक पण्डित अन्य आठ याज्ञिक पण्डितों को साथ लेकर आया। उसने लोलियाणक नगर में वाजपेयी यज्ञ का आयोजन किया जिसमें कि एक लाख रजत मुद्राओं के लगभग द्रव्य के व्यय का अनुमान लगाया गया था। यज्ञ के लिए अनेक प्रकार की बहुमूल्य सामग्री के साथसाथ वाजपेयी यज्ञ में बलि चढ़ाने के लिए ३२ बकरों को भी यज्ञ-स्थल पर लाया गया । वाजपेयी यज्ञ में बकरों की बलि दी जायेगी इस संवाद के फैलते ही अहिंसा प्रेमी प्रजा में एक हलचल सी पैदा हो गई । पूर्णिमा पक्ष के श्री कनकाचार्य ने अपने शिष्य समूह के साथ प्राचार्यश्री जिनचन्द्रसूरि की सेवा में उपस्थित हो निवेदन किया :-"प्राचार्यप्रवर ! आप जैसे तार्किक शिरोमणि वादी चक्रवर्ती परम पूज्य महापुरुष की विद्यमानता में याज्ञिक निरीह पशुओं का वध कर हवन करें इससे बड़ी दुःख की बात और क्या हो सकती है ?"
कनकाचार्य की बात को सुनते ही उन्होंने अपने कतिपय शिष्यों के साथ कनकाचार्य को यज्ञ के मण्डप में भेजा और दामोदर पण्डित को यह सन्देश
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