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________________ ५५६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ साहित्य, छन्द, अलंकार, धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त कर एक समय आखेट के लिए जंगल में गया । शिकार की खोज में घूमते-घूमते कुमार की दृष्टि एक हरिणी पर ‘पड़ी। उसने शर सन्धान कर हरिणी को लक्ष्य कर बाण चलाया । बाण के प्रहार से हरिणी पृथ्वी पर गिर पड़ी। हरिणी गर्भवती थी और उसका प्रसवकाल सन्निकट था। तीर के प्रहार से नीचे गिरते ही उसने एक बच्चे को जन्म दिया और वह अपने नवजात शिशु को छटपटाता छोड़कर पंचत्व को प्राप्त हो गई। ___ दृश्य बड़ा ही करुण था। कुमार ने देखा कि हरिणी तड़प रही है । अपने सद्यः प्रसूत शिशु की ओर मुग्ध दृष्टि से देखती हुई और कभी उसकी (कुमार की) पोर कातर दृष्टि से देखती हुई अांखों से अश्रुषों की गंगा यमुना प्रवाहित कर रही है । उधर उसी क्षण उत्पन्न हुआ छोटा सा निरीह मृग शावक भी छटपटा रहा है। इस हृदयद्रावक करुण दृश्य को देखकर राजकुमार की अांखों के सम्मुख अन्धेरा छा गया। उसके अन्तर्मन में पश्चात्ताप की भीषण ज्वालाएं जल उठी। उसके कण्ठों से हठात् ही हृदय के उद्गार प्रस्फुटित हो उठे-"धिक्कार है मुझे जो मैंने इन दो निरीह प्राणियों की एक ही तीर में हत्या कर दी। मैं इस घोर अति चिक्कण दुष्कर्म के पाप से कैसे विमुक्त हो सकता हूं।" इस प्रकार मन ही मन इस घोर पाप का प्रायश्चित्त करने हेतु तीर्थ यात्रा का दृढ़ संकल्प कर म्लान मना राजकुमार गजप्रासाद में लौटा । उसने बिलखते हुए अपने पाप की सारी घटना अपने पिता के सम्मुख रक्खी । महाराज भट्टानिक ने कुमार को सान्त्वना देते हुए तत्काल हरिणी और हरिणी के बच्चे की सोने की मूर्तियां बनवाई और ब्राह्मणों को बुलवा कर कुमार के उस पाप के प्रायश्चित्त स्वरूप उन दोनों स्वर्ण मूर्तियों के टुकड़े-टुकड़े कर वह सोना ब्राह्मणों में बांट दिया। इस प्रकार के प्रायश्चित्त के उपरान्त भी कुमार के अन्तर्भन में किचित्मात्र भी सन्तोष नहीं हुया । वह अर्द्ध रात्रि में वेष बदल कर किसी को किसी भी प्रकार की बात न कहकर चुपचाप नंगे पांवों राजप्रासाद से बाहर निकल निर्जन वन की अोर प्रस्थित हो गया। इस प्रकार वह कई दिनों तक निरुद्देश्य निरन्तर चलता ही रहा । एक दिन वह राजकुमार स्थलवती भूभाग के 'कोडम घर्टक' नामक नगर में पहुंचा । वहां भगवान् महावीर के मन्दिर में भगवान् की स्तुति करते हुए एक श्रावक को उसने देखा । राजकुमार ने उस धावक से उसके द्वारा बोली गई स्तुति का अर्थ पूछा। जब वह श्रावक कुमार को उस स्तुति का भली-भांति अर्थ न समझा सका तो उसने कहा-"हमारे गुरु देव बड़े विद्वान् हैं। वे यहीं पास में हैं। वे आपको इसका अर्थ अच्छी तरह से समझा देंगे । यदि आपकी इच्छा हो तो उनके पास चलिये ।" कुमार उस श्रावक के साथ हो लिया और सिद्ध सिंह नामक प्राचार्य के पास पहुंचा । प्राचार्य को नमस्कार करने के अनन्तर कुमार ने उस स्तुति का उनसे अर्थ पूछा । कुमार की सौम्य प्राकृति से प्राचार्य सिद्ध सिंह ने तत्काल समझ लिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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