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________________ श्रागमिकगच्छ आगमिक गच्छ की उत्पत्ति भी क्रियोद्धार के लिये किये गये एक प्रयास के रूप में हुई । बारहवीं शताब्दी के अन्त और तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ काल में जिस समय चन्द्र गच्छ में शिथिलाचार एवं अनागमिक मान्यताओं का प्रावल्य बढ़ गया उस समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के द्वितीय दशक के प्रारम्भ में मुनि श्री शील गणसूरि ने क्रियोद्धार कर विधिपक्ष पर नाम प्रागमिक गच्छ की स्थापना की । आगमिक गच्छ की स्थापना करने के परिणामस्वरूप श्री शीलगणसूरि को आगमि गच्छ का प्रथम आचार्य माना गया है । आगमिक गच्छ चन्द्रकुल अथवा चन्द्र गच्छ की ही एक शाखा है । यह तथ्य आगमि गच्छ की पट्टावलि के निम्न श्लोकों से प्रकट होता है । श्रीमद्वीर जिनेन्द्र पट्टकमलालंकारहारः स्फुरन्, सूत्रोद्भूतगुणावली परिगतः स्वामी सुधर्माजनि । तद्वंशे शतसंख्य सूर्यमुकुटश्चन्द्रो मुनीन्द्रोऽभवत्, यस्माद् भूरिगुणाः मुनीश्वरगरणाकीरण जयन्ति क्षितौ |१| चान्द्रेकुले सुविमले महिमानिधान सूरिर्बभूव, भुविशीलगरणाभिधान । यो दुःषमा विषम पंक निमग्नमुच्चै, जैनागमोक्त विधिरत्नमिहोदधार ||२|| अर्थात् श्रमरण भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर गरणधर सुधर्मा स्वामी की परम्परा में महामुनि चन्द्र हुए। उन चन्द्र मुनि से चन्द्रकुल प्रचलित हुआ और उसमें अनेक आचार्यों के अनेक गरण हुए जो वर्तमान में विद्यमान हैं । उसी विमल चन्द्रकुल में शीलगरण नामक एक महा महिमाशाली आचार्य हुए उन शीलगरणसूरि ने दुषमा नामक पंचम आारक के प्रभाव से शिथिलाचार एवं विकृतियों के दलदल में फंसे हुए आगमोक्त विधि मार्ग का उद्धार किया । (१) शीलगरणसूरि : चन्द्रकुल से उत्पन्न हुए आगमिक गच्छ के संस्थापक शीलगरणसूरि का जीवन परिचय निम्नलिखित रूप में उपलब्ध होता है : “भारत के पूर्वांचल में कन्नौज नामक राज्य के अधिपति महाराजा भट्टानिक के कुमार नामक एक राजपुत्र था । कुमार राजकुमारों के योग्य लक्षण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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