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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
वस्तुतः ज्योतिष शास्त्र के पारहवा विद्वान् हैं । उन्होंने जो कुछ कहा है वह सत्य है । अब आपको वस्तुतः प्रात्म कल्याण हेतु अहर्निश धर्म की आराधना करनी चाहिये ।"
"तदनन्तर राजा धर्माराधन में संलग्न हो गया और इस प्रकार प्रात्म साधना करते-करते सातवें दिन परलोकवासी बन गया ।"
" इस प्रकार पंचमी के दिन सांवत्सरिक पर्वाराधन के पक्षधर कतिपय गच्छों के साधु तो पाटण से विहार कर अन्यत्र चले गये । किन्तु विधि पक्ष के प्राचार्य जयसिंहसूरि ग्रपनी प्रद्भुत सूझबूझ के बल पर पाटण में ही चल बने रहे । इस कारण उनके विधि पक्ष गच्छ का नाम 'अचलगच्छ' भी लोक में प्रचलित हो गया ।"
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इतिहास की कसौटी पर कसने के अनन्तर राजा कुमारपाल का प्राचार्य हेमचन्द्र से पूर्व परलोकवासी होना खरा सिद्ध नहीं होता । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि विक्रम सम्वत् १२२६ में हेमचन्द्राचार्य स्वर्गस्थ हुए और राजा कुमारपाल का देहावसान उनके दिवंगत होने के ६ माह पश्चात् वि० सं० १२३० में हुआ । इसके अतिरिक्त इस मेरुतु गीया पट्टावली के अतिरिक्त अन्य किसी पट्टावली में अचलगच्छ नामाभिधान विषयक इस घटना का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । केवल भीमसी माणेक गुरु पट्टावली में थोड़े हेरफेर के साथ इस घटना का उल्लेख मिलता है । इसके उपरान्त भी जैसा कि पहले खरतरगच्छ के परिचय में बताया जा चुका है, कुमारपाल के राज्यकाल में पौर्णमिक व खरतर आदि कतिपय गच्छों के आचार्यों के पाटण में प्रवेश को राजाज्ञा द्वारा निषिद्ध कर दिया गया था, तदनुसार सम्भव है कि इस प्रकार की राजाज्ञा के उपरान्त भी जयसिंहसूर अपने बुद्धि कौशल से पाटण में ही अवस्थित रहे हों और उनके इस प्रकार अचल रहने के परिणामस्वरूप उनके विधि पक्ष गच्छ का अपर नाम 'अचलगच्छ' भी प्रचलित हो गया हो ।
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