SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 576
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] . आगमिकगच्छ [ ५५७ कि यह कोई पुण्यशाली भव्य प्राणी है। प्राचार्यश्री ने उस स्तुति का अर्थ समझाने के पश्चात् कुमार को सच्चे धर्म का उपदेश दिया। भगवान् महावीर को स्तुति का अर्थ एवं धर्मोपदेश को सुनकर राजकुमार को प्रतिबोध प्राप्त हुआ और उनके पास श्रमण धर्म में दीक्षित हो गया । दीक्षित होने के पश्चात् कुमार ने बड़ी ही निष्ठा और लगन के साथ अपने प्राचार्यदेव के पास आगमों का अध्ययन किया। मुनि कुमार बड़ा ही कुशाग्र बुद्धि एवं अध्यवसायी था। उसने प्रागमों के अध्ययन के साथ-साथ अनेक विद्याओं में स्वल्प काल में ही पारीणता प्राप्त की और उसकी गणना उच्च कोटि के आगमज्ञ विद्वानों में की जाने लगी। __ एक दिन कुमार मुनि ने अपने गुरु सिद्धसिंहसूरि की सेवा में उपस्थित हो अति विनम्र शब्दों में जिज्ञासापूर्ण निवेदन किया :- "भगवन् ! सर्वज्ञ प्रणोत आगमों में जो श्रमणाचार का वर्णन किया गया है उसके अनुरूप आज श्रमण वर्ग में निर्दोष विशुद्ध श्रमणाचार दृष्टिगोचर नहीं होता इसका क्या कारण है ?" अपने शुद्ध एवं सरलमना आत्मार्थी तथा उद्भट विद्वान् शिष्य के मुख से इस प्रकार के प्रश्न को सुनकर प्राचार्य श्री सिद्धसिंह सहसा चौंक उठे। तदनन्तर प्रकृतस्थ हो उन्होंने कहा- "वत्स ! दुःषमा काल के प्रभाव से साम्प्रत काल में जिस प्रकार का श्रमरणाचार पूर्व की पट्ट परम्परा से चला आ रहा है उसी प्रकार के श्रमणाचार का पालन किया जा रहा है। आगम में जिस प्रकार की क्रिया का श्रमण के लिये उल्लेख है उस प्रकार की क्रिया का पालन वर्तमान काल में नहीं होता।" कुमार मुनि ने प्रश्न किया :-"प्राचार्यदेव ! जब आज के समय में शास्त्र सम्मत विशुद्ध श्रमणाचार का एवं साधु के लिये परमावश्यक निर्दोष निरतिचार क्रियाओं का पालन साधुओं द्वारा नहीं किया जा रहा है तो इस प्रकार की शिथिल और सदोष साधुक्रियाओं का पालन करने वाले श्रमण आराधक हैं अथवा विराधक ?" आचार्यश्री सिद्धसिंह ने कहा :- "वत्स ! वास्तविकता तो यह है कि जो श्रमण-श्रमरणी वर्ग पागमोक्त क्रिया करने वाले और निरतिचार संयम का पालन करने वाले हैं वे आराधक हैं और इसके विपरीत जो आगमों में प्रतिपादित विशुद्ध श्रमणाचार का पालन नहीं करते, “सव्वं सावज्जं जोगं पच्चवखामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं'- इस प्रकार की प्रतिज्ञा सिद्ध अरिहन्त आदि पंच परमेष्ठि एवं चतुर्विध संघ के समक्ष करके भी पागम वचन की अवहेलना कर अपने श्रमण जीवन में अतिचार लगाते हैं, वे वस्तुतः विराधक ही हैं।" अपने प्राचार्य देव के मुख से आराधक और विराधक की पागम प्रतिपादित व्याख्या सुनकर कुमार मुनि ने उन्हें सांजलि शीश झुकाते हुए वन्दन किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy