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________________ ५४६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ सूरिजी आप (स्वयं) चैत्यवासी थे या नहीं इस चर्चा में उतरने का यह उपयुक्त स्थल नहीं है, परन्तु इन्होंने प्राचार्याभिषेक विधि में तथा प्रतिष्ठा विधि में जो कतिपय बातें लिखी हैं वे चैत्यवासियों की पौषधशालाओं में रहने वाले शिथिलाचारी साधुयों की हैं, इसमें तो कुछ शंका नहीं है । जैन सिद्धान्त के साथ इन बातों का कोई सम्बन्ध नहीं है । आचार्याभिषेक के प्रसंग में इन्होंने भावी प्राचार्य को तैलादि विधि पूर्वक प्रविधवा स्त्रियों द्वारा वर्णक ( पीठी) करने तक का विधान किया है । यह सब देखते तो यही लगता है. कि श्री पादलिप्तसूरि स्वयं चैत्यवासी होने चाहिये । कदाचित ऐसा मानने में कोई आपत्ति हो तो न मानें फिर भी इतना तो निर्विवाद है कि पादलिप्तसूरि का समय चैत्यवासियों के प्राबल्य का था । इससे इनकी प्रतिष्ठा पद्धति आदि कृतियों पर चैत्यवासियों की अनेक प्रवृत्तियों की अनिवार्य छाप है । साधु को सचित्त जल पुष्पादि द्रव्यों द्वारा जिनपूजा करने का विधान जैसे चैत्यवासियों की आचरणा है उसी प्रकार से सुवर्ण मुद्रा, कंकरण धारणादि विधान ठेठ चैत्यवासियों के घर का है, सुविहितों का नहीं ।" "श्रीचन्द्र, जिनप्रभ, वर्द्धमानसूरि स्वयं चैत्यवासी न थे, फिर भी वे उनके साम्राज्यकाल में विद्यमान अवश्य थे । इन्होंने प्रतिष्ठाचार्य के लिये मुद्रा, कंकरण धारण का विधान लिखा। इसका कारण श्रीचन्द्र सूरिजी आदि की प्रतिष्ठा पद्धतियां चैत्यवासियों की प्रतिष्ठा विधियों के आधार से बनी हुई हैं, इस कारण से इनमें चैत्यवासियों की आचरणाओं का आना स्वाभाविक है । उपर्युक्त प्राचार्यों के समय में चैत्यवासियों के किले टूटने लगे थे फिर भी वे सुविहितों द्वारा सर नहीं हुए थे । चैत्यवासियों के मुकाबले में हमारे सुविहित आचार्य बहुत कम थे । उनमें कतिपय अच्छे विद्वान् और ग्रन्थकार भी थे, तथापि उनके ग्रन्थों का निर्माण चैत्यवासियों के ग्रन्थों के आधार से होता था । प्रतिष्ठा विधि जैसे विषयों में तो पूर्व ग्रन्थों का सहारा लिये बिना चलता ही नहीं था । इस विषय में 'आचार दिनकर' ग्रन्थ स्वयं साक्षी है । इसमें जो कुछ संग्रह किया गया है वह सब चैत्यवासियों और दिगम्बर भट्टारकों का है, वर्द्धमानसूरि का अपना कुछ भी नहीं है ।" " 1 चैत्यवासी परम्परा के प्रभाव में आने के परिणामस्वरूप चैत्यवासी परम्परा का भूत सुविहित कही जाने वाली अन्य परम्पराम्रों के सिर पर ऐसा सवार हुआ कि परम पवित्र पंचम अंग 'भगवती सूत्र' के मूल पाठ को भी चैत्यवासी परम्परा की मान्यताओं के अनुकूल बदल कर 'प्रतिमाधिकार' नामक ग्रन्थ में उल्लिखित कर लिया । श्रागमों के, विशेष कर, एकादशांगी के पाठ में अपने अभिनिवेश की पुष्टि हेतु साम्प्रदायिक व्यामोहवशात् पद अक्षर ही नहीं, एक मात्रा तक का भी १. प्रबन्ध निचय, पृष्ठ २०८ व २०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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