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________________ ऐतिहासिक तथ्य J [ ३७ क्षमाश्रमरण के स्वर्गारोहण के पश्चात् अर्थात् पूर्व-ज्ञान के विलुप्त हो जाने के अनन्तर आचार्यों एवं विद्वानों द्वारा निर्मित ग्रन्थों, नियुक्तियों भाष्यों, चूरियों और वृत्तियों को आगमों के समकक्ष और अनेक प्रसंगों पर तो आागमों से भी अधिक प्रामाणिक सिद्ध करने का प्रयास किया है । एक सबसे बड़ी आश्चर्य की बात यह है कि विभिन्न गच्छों के उद्भव, विभिन्न मान्यताओं के प्रचलन और उन गच्छों एवं परम्परात्रों में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पारस्परिक विद्वेष के काल में विभिन्न गच्छों के विद्वानों द्वारा निर्मित खण्डन-मण्डनात्मक ग्रन्थों में अपने-अपने गच्छ को अपनी-अपनी परम्परा व अपनी-अपनी मान्यता को ही सर्वथा सत्य, सबसे श्रेष्ठ एवं अन्य सब गच्छों, परम्पराओं आदि की मान्यताओं को असत्य, मिथ्या, प्रतीर्थ, तीर्थबाह्य और निकृष्ट बताने का प्रयास किया है । अपने-अपने पक्ष को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयास में प्राय: उन सभी विद्वानों ने आगमों के नहीं, अपितु श्रागमेतर ग्रन्थों के उद्धरण एवं प्रमारणादि प्रस्तुत किये हैं । इन गच्छों में से प्रत्येक गच्छ के प्रायः प्रत्येक विद्वान् ने केवल अपने पक्ष को ही सत्य और दूसरे पक्षों को मिथ्या एवं कदाग्रहपूर्ण सिद्ध करने में किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रक्खी है । इस प्रकार के तथ्यातथ्य का निर्णय करने में वीतराग, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिनेश्वर महावीर द्वारा उपदिष्ट एवं गणधरों द्वारा ग्रथित आगमों से इतर अन्य कोई सक्षम नहीं हो सकता, इस तथ्य की ओर उन विद्वानों ने कोई ध्यान नहीं दिया । विद्वानों द्वारा इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न कर दिये जाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि आज श्रमण भगवान् महावीर का धर्मसंघ विभिन्न इकाइयों में विभक्त होकर विघटित छिन्न-भिन्न एवं अशक्तावस्था में पहुंच गया है । I उपरि वरित इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर हस्तामलकवत् स्पष्टतः यही प्रतिभासित होता है कि आर्य देवगिरिण क्षमाश्रमरण के स्वर्गारोहण के पश्चात् जितनी भी द्रव्य परम्पराओं का जन्म हुआ, उनकी नींव न केवल अनागमिक ही अपितु नितान्त आगम विरोधी मान्यताओं की आधारशिला पर रखी गई थी । चैत्यवासी, भट्टारक, श्री पूज्य आदि जितनी भी द्रव्य परम्पराएं अस्तित्व में आईं, उन सबका उद्भव, प्रचार, प्रसार, उत्कर्ष यह सब कुछ सर्वज्ञ प्ररणीत आगमों के आधार पर नहीं अपितु उन द्रव्यपरम्पराओं के सूत्रधारों द्वारा परिस्थितिवश लोकप्रवाह के आधार पर निर्मित प्रतिष्ठा विधि, जिन प्रतिमाधिकार जैसे ग्रन्थों एवं नियुक्तियों, चूरियों, अवचूर्णियों, वृत्तियों अथवा भाष्यों आदि के अनागमिक उल्लेखों के आधार पर हुआ । जैन साहित्य में विकारों का बीजारोपण देवगिरिण क्षमाश्रमरण के उत्तरवर्ती काल में इस प्रकार के ग्रन्थों की अनागमिक मान्यताओं के प्रबल प्रचार-प्रसार के परिणामस्वरूप एवं चतुविध संघ के बहुसंख्यक सदस्यों में उन मान्यताओं के रूढ़ हो जाने के फलस्वरूप ही हुआ । देवगिरिण क्षमाश्रमण की विद्यमानता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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