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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ दो राजाओं के थोथे अहं और उन राजाओं के अहमक मन्त्रियों की अदूरदर्शिता के कारण भारत की जो सेनाएं आने वाले दिनों में देश की रक्षा के लिये काम में आतीं, वह परस्पर ही लड़-भिड़कर नष्ट अथवा अशक्त हो गई।"
इस प्रकार तृतीय भाग में दो राजाओं की भूल और उनके अहमक मन्त्रियों की अदूरदर्शिता पर जो प्रकाश डाला गया है, वह किसी शासक को नीचा दिखाने के उद्देश्य से नहीं, किन्तु भारत के भावी कर्णधार भूत की इस भूल से भविष्य में सदा शिक्षा लेते रहें, इसी उद्देश्य से इस घटना का उल्लेख किया गया है ।
राजनैतिक क्षेत्र में दो अदूरदर्शी राजानों द्वारा की गई अदूरदर्शितापूर्ण भूल अथवा त्रुटि के समान ही धार्मिक क्षेत्र में धर्मसंघ के अग्रणियों द्वारा जो जो भूलें की गईं, उनका दिग्दर्शन तृतीय भाग में इसी उद्देश्य से किया गया है कि अतीत में चतुर्विध संघ के कर्णधारों, नायकों अथवा सदस्यों ने जिस प्रकार की भूलें की हैं, शास्त्राज्ञा की अवहेलना कर अशास्त्रीय मान्यताओं को प्रश्रय देकर धर्मसंघ को विघटन की ओर ढकेलने की भूल की है, उस प्रकार की भूत में हुई भूलों की । भविष्य में पुनः कभी पुनरावृत्ति न हो।
जिस अवधि का इतिहास आलेख्यमान चतुर्थ भाग में दिया जा रहा है, उस अवधि में भी दुष्षमा दोषवशात् धर्मसंघ के अग्रणियों, कर्णधारों, नायकों एवं उनके अनुयायियों अथवा उपासकों द्वारा विघटन, पतन की ओर धकेलने वाली ज्ञात अज्ञात अवस्था में भूलें हुई हैं, उनका दिग्दर्शन प्रस्तुत भाग में पूर्ण संयम के साथ, अति विनम्र शैली में किया जायेगा। उपरि लिखित अवधि में भूलें हुई हैं इस तथ्य को कोई भी विज्ञ अस्वीकार नहीं कर सकता । शास्त्रीय विशुद्ध परम्परा की तीर्थ प्रवर्तन काल से चली आ रही पूर्ण अध्यात्मपरक मान्यताओं के स्थान पर अनेक द्रव्य परम्पराओं द्वारा भौतिकता-प्रधान ऐसी मान्यताएं भी जैनधर्म संघ में प्रचालित एवं प्ररूढ़ की गई हैं, जो जिनाज्ञा से विपरीत और आगम-प्रतिपादित संस्कृति को मिटाने वाली हैं, इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता। क्योंकि उन आगम विरुद्ध मान्यताओं एवं विघटनकारी भूलों की साक्षी देने वाली सैंकड़ों परस्पर विरोधी मान्यताओं, सैंकड़ों गच्छों, मतों, परम्पराओं, छोटी बड़ी सैंकड़ों इकाइयों के उल्लेखों से उक्त अवधि का जैन वांग्मय भरा पड़ा है। गच्छों द्वारा परस्पर एक दूसरे का कटुतर ही नहीं बल्कि कटुतम शब्दों में खण्डन-मण्डन करने वाले एवं अपने प्रतिपक्षी को अशोभनीय अशिष्ट भाषा में अभिहित करने वाले विभिन्न गच्छों के मुद्रित एवं अमुद्रित ग्रन्थ आज भी बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध होते हैं । भगवान् महावीर के परम पवित्र एवं विश्व कल्याणकारी धर्म संघ को इस प्रकार की छिन्न-भिन्न, बिखरी हुई, परस्पर विरोधी, विघटित अवस्था में पहुंचाने वाले वे विभिन्न गच्छ, संघ एवं सम्प्रदाय ही हैं, जिन्होंने आगमों के स्थान पर देवद्धिगणि
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